यह उन दिनों की बात है, जब गौतम बुद्ध की ख्याति धीरे-धीरे फैल रही थी। एक सम्राट ने किसी चोर को मृत्युदंड दिया। चोर को मारने के लिए एक चांडाल को बुलाया गया। उसने चोर को मारने से इन्कार कर दिया। उसे बहुत समझाया गया लेकिन वह नहीं माना। राजा ने आज्ञा दी, ’राजाज्ञा के विरुद्ध आचरण करने के लिए इसे मौत के घाट उतार दिया जाए।’ अब उसे मारने के लिए उसके छोटे भाई को बुलाया गया। उसने भी उसे मारने से मना कर दिया। राजा ने उसे भी मृत्युदंड देने की घोषणा की। फिर उससे छोटे भाई को बुलाया गया। इस प्रकार पांच भाई बुलाए गए लेकिन सब ने किसी को भी मारने से इन्कार कर दिया। आखिर में सबसे छोटे भाई को बुलाया गया। उसने भी ऐसा ही किया। उसे भी मृत्युदंड की सजा मिली।
तभी उनकी बूढ़ी मां वहां आ पहुंची। वह राजा से प्रार्थना करने लगी, ’महाराज, आप इसे मारने का आदेश न दें।’ राजा को आश्चर्य हुआ। उसने पूछा, ’तुम्हें अपने पांच पुत्रों को मृ्त्युदंड दिए जाने का तो कोई दु:ख नहीं हुआ लेकिन जब इसे सजा सुनाई गई तो तुम दुखी हो गई। ऐसा क्यों?’ बुढ़िया ने कहा, ’मेरे उन पांच पुत्रों पर तथागत का उपदेश पूर्ण रूप से काम कर रहा था इसलिए मुझे उनके मरने पर दु:ख नहीं होगा। छोटा बेटा अभी बच्चा है इसलिए थोड़ा कच्चा भी है। तथागत का उपदेश अभी इस पर पूर्ण रूप से जम नहीं पाया है। मुझे लगता है कि मरते वक्त यह अपनी भावना को दूषित बनाकर कहीं अधोगति में न चला जाए इसलिए मैं इसके जीवन की प्रार्थना कर रही हूं।’ राजा का क्रोध शांत हो गया। उसने कहा, ’तुमने मेरी आंखें खोल दीं। मुझे बताओ तथागत कहां हैं।’ बुढ़िया ने कहा, ’यह तो पता नहीं लेकिन वह कभी-कभी भिक्षा के लिए मेरे घर आते हैं।’ राजा भी तथागत की शरण में चला गया।
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