किसी गांव में एक वृद्ध व्यक्ति अपनी झोपड़ी के सामने बैठा जूते बना रहा था। तभी वहां गेरुआ वस्त्र पहने एक संत उसके पास आए और बोले, ‘बाबा, बहुत दूर से चल कर आ रहा हूं। मुझे बहुत तेज प्यास लगी है। क्या पीने को पानी मिलेगा?’ वृद्ध व्यक्ति की आंखें आश्चर्य से उन्हें देखती रह गईं। उसे संत के वचनों पर विश्वास नहीं हो रहा था। वह असमंजस में पड़ गया कि संत को आखिर क्या उत्तर दे? संत समझ गए कि यह व्यक्ति द्वंद्व में फंस गया है। कुछ उत्तर न मिलते देख उन्होंने फिर कहा, ‘बाबा, अगर पानी नहीं हो तो किसी दूसरे स्थान पर जाकर अपनी प्यास बुझाऊं।’ वृद्ध हाथ जोड़कर बोला, ‘स्वामी जी, आप स्वयं देख रहे हैं कि मैं जूते बना रहा हूं। क्या मेरे हाथ का दिया जल ग्रहण कर सकेंगे? गांव के लोग मेरे दिए जल को पीना तो दूर, छूना भी स्वीकार नहीं करते।’वृद्ध की बात सुनकर संत ठहाका लगाकर हंस पड़े।
संत के इस तरह हंसने से वृद्ध और भी ज्यादा डर गया लेकिन दूसरे ही क्षण स्वामी जी शांत भाव से बोले, ‘यह तो मैं अपनी खुली आंखों से देख ही रहा हूं लेकिन मुझे इससे कोई सरोकार नहीं। तुम मुझे खुशी-खुशी जल पिलाओ। यदि तुम्हें कोई आपत्ति न हो तो मैं भोजन भी तुम्हारे घर करूंगा।’ स्वामी जी की बात सुनकर वृद्ध व्यक्ति के आश्चर्य की कोई सीमा नहीं रही। वह नतमस्तक हो गया। स्वामी जी ने वृद्ध की मानसिक उद्विग्नता को शांत करते हुए कहा, ‘इस धरती पर कोई छोटा-बड़ा नहीं है। हम सब एक ही ईश्वर की संतान है। उस ईश्वर का अंश प्रत्येक जीव में विद्यमान है। जो ईश्वर की संतान को छोटा और हीन समझता है, उससे घृणा करता है, उसे ईश्वर भी उसी तरह देखते हैं और वैसा ही व्यवहार करते हैं।’ स्वामी जी ने उस वृद्ध व्यक्ति के घर पानी ही नहीं पिया, वरन प्रेम पूर्वक भोजन भी ग्रहण किया। वह स्वामी विवेकानंद थे।
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