Wednesday, April 22, 2015

आत्मसुख ईश्‍वरीय अनुग्रह


भगवान के दो भक्त थे। एक बड़ा ईमानदार था, दूसरा बेईमान। पहला दिनभर मेहनत से काम करता। न कुछ चुराता और न फालतू समय बरबाद करता, लेकिन शाम को जब भगवान के पास जाता तो अनेक इच्छाएं रखता-‘मुझे घर चाहिए, पत्नी चाहिए, पुत्र चाहिए और चाहिए विपुल धन-संपत्ति, जिससे कि सुख और सुविधापूर्वक रह सकूँ।‘ दूसरा व्यक्ति दिनभर दाएँ-बाएँ करता।  जहॉं अवसर मिलता कुछ-न-कुछ बचाकर चुपचाप अपनी जेब में रख लेता। जो कुछ मिलता, अपने लिए अधिक रखकर दूसरों को कम देता। शाम को भगवान के पास जाता। प्रेम और श्रद्धा से सिर झुकाता और चुपचाप अपने घर लौट जाता। बेईमान की उन्नति होती गई। यह देखकर ईमानदार को बड़ी जलन हुई। अपने भगवान से शिकायत की-‘प्रभुवर, मैंने आपकी भक्ति सचाई और ईमानदारी से की, पर आपने दिया बेईमान को सब कुछ।‘ 

भगवान हँसे और बोले, ‘वत्स, बार-बार मॉंगकर परेशान करने की अपेक्षा तो तुम भी वैसा ही करते तो क्या बुरा था? अपने किए का भरपूर इनाम मॉंगते रहने पर तुम्हारी सेवा और साधना का महत्व ही क्या रह जाता?  आत्मसंतोष के रूप में हमारा जो स्नेह और आशीर्वाद तुम्हें मिलता है, क्या उतने से संतुष्ट नहीं रह सकते?‘ भक्त का समाधान हो गया। उसने अनुभव किया आत्मसुख और आत्मशक्ति के रूप में जो मिलता है वह ईश्‍वर का सबसे बड़ा अनुग्रह है।  

No comments:

Post a Comment