Tuesday, April 14, 2015

प्रत्यक्ष ज्ञान


वाग्भट्ट धन्वंतरि के गुरुकुल में शिक्षा ग्रहण करते थे। एक बार उनकी पीठ पर फोड़ा निकल आया। धन्वंतरि ने उस फोड़े के इलाज के लिए उन्हें वन में जाकर कुछ जड़ी-बूटियां लाने को कहा। वाग्भट्ट धन्वंतरि का आदेश पाकर उन बूटियों की खोज करने वन में चले गए। वह कई दिनों तक भटकते रहे। इधर-उधर काफी खोजने के बाद उन्हें कई प्रकार की दूसरी जड़ी-बूटियां मिलीं, लेकिन जो धन्वंतरि ने कहा था, वह कहीं नहीं मिली। फिर वे अन्य बूटियां ही अपने झोले में भरकर ले आए। उन्हें धन्वंतरि के सामने रखते हुए वाग्भट्ट ने कहा, ’महात्मन, भरसक प्रयासों के बाद भी मैं आपके द्वारा बताई गई जड़ी-बूटियों को खोजने में असफल रहा परंतु मैं अपने विवेकानुसार अन्य बूटियां ले आया हूं। इनमें से आप स्वयं देख लें। मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूं।’ धन्वंतरि ने वाग्भट्ट द्वारा लाई गई बूटियों को एक तरफ रख दिया और आश्रम में से एक जड़ी लाकर उसे पीस कर उसका लेप वाग्भट्ट के फोड़े पर लगा दिया। आश्‍चर्यजनक रूप से वाग्भट्ट का वह फोड़ा तीन दिनों में ही ठीक हो गया। स्वस्थ होने के बाद वाग्भट्ट ने धन्वंतरि से पूछा, ’गुरुदेव, जो जड़ी आपने मेरे फोड़े पर लगाई वह तो आश्रम में ही उगी हुई थी, फिर आपने मुझे वन में क्यों भेजा? जड़ी-बूटी खोजने में मेरा समय नष्ट हुआ और परिश्रम भी अकारथ चला गया।’ धन्वंतरि बोले ’वत्स, तुम्हारा न तो समय ही नष्ट हुआ और न ही परिश्रम व्यर्थ गया, बल्कि तुम्हें इसी कारण नई-नई बूटियों की पहचान हुई। तुमने कई दुर्लभ जड़ी- बूटियों को खोज निकाला जो भविष्य में अनेक रोगों को दूर करने में प्रयोग में लाई जाएंगी इसलिए तुम्हें तो प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त हुआ है। अब तुम इसके विशेषज्ञ जाने जाओगे। इसके अलावा तुम्हारे इस प्रयास से यह भी मालूम हुआ कि अपने रोग के निदान के लिए तुम कितने प्रयत्नशील हो।’ वाग्भट्ट अपने गुरु का आशय समझकर उनके प्रति नतमस्तक हो गए।

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