अ़़हमद नामक एक फकीर थे। उनका ज्यादातर वक्त इबादत या लोगों की मदद में बीतता था। वह लोगों की समस्याओं का समाधान चुटकियों में कर देते थे। वह जो उपाय बताते या तरीके सुझाते, लोग उन पर आंख मूंदकर अमल करते थे। एक दिन उनके पड़ोस में रहने वाले व्यापारी बहराम के घर से रोने-धोने व शोर-शराबे की आवाजें सुनाई पड़ीं। यह सुनते ही अहमद बहराम के घर जा पहुंचे। वहां पहुंचने पर अहमद को पता चला कि बहराम जब खरीदा गया माल ऊंटों पर लादकर घर ला रहा था तो रास्ते में डाकुओं ने उसका सारा सामान लूट लिया। अपनी सारी संपत्ति लुट जाने के कारण वह पागल-सा हो गया और आत्महत्या करने जा रहा था। ऐन मौके पर कुछ लोगों ने आकर उसे आत्महत्या जैसा घृणित कार्य करने से बचा लिया। खुदकुशी न कर पाने के कारण वह आवेश में बिना सोचे-समझे रो-रो कर बोले जा रहा था, ’कंगाल होकर जीने का क्या मतलब है। मैं आखिर क्यों जिंदा रहूं?’ अहमद को सामने खड़ा देखकर उसे थोड़ी राहत मिली।
अहमद ने उसके पास आकर पूछा, ’बहराम, जब तुम पैदा हुए थे, तो क्या वह धन तुम्हारे पास था जो लुटेरों ने लूट लिया?’ यह सुनकर बहराम बोला, ’नहीं, मैंने बड़ा होने पर अपनी मेहनत से वह दौलत इकट्ठी की थी।’ इस पर अहमद बोले, ’क्या लुटेरों ने मेहनत करने वाले तुम्हारे हाथ-पैरों को भी लूट लिया है?’ बहराम बोला, ’नहीं’। इस पर अहमद ने कहा, ’तुम्हें तो किसी ने नहीं लूटा! तुम्हारी असली दौलत यानी तुम्हारे हाथ-पैर सही सलामत हैं और फिर तुम्हारे दिल में रहम है। इनसे बढ़कर कोई और दौलत नहीं है। फिर तुम अपने-आप को कंगाल कैसे बता रहे हो?’ अहमद के इन शब्दों को सुनकर बहराम का सारा दु:ख-दर्द दूर हो गया। उसने इस बात पर अफसोस जाहिर किया कि वह मरने की बात सोच रहा था।
No comments:
Post a Comment