Wednesday, April 15, 2015

उकाब और मकड़ी


एक उकाब खूब ऊंची-ऊंची उड़ान भरता और पहाड़ों की चोटियों पर बैठा मजे से नीचे का दृश्य देखता। एक बार जब वह उड़ने लगा तो एक मकड़ी उसके पैरों से चिपक गई और साथ-साथ पहाड़ की चोटी तक जा पहुंची। वहां पहुंचकर वह उकाब के पैरों को छोड़कर दूर एक चट्टान पर जा बैठी और कहने लगी, ‘देखो मैं कितनी ऊंचाई पर पहुंच गई हूं।’ इतने में हवा का एक तेज झोंका आया। उकाब तो मजे से वहां बैठा रहा, उसे आदत थी। उतनी ऊंचाई पर तेज हवा के सामने टिके रहने का कौशल उसे मालूम था लेकिन मकड़ी एक ही झटके में चट्टान से गिरकर हवा में लहराती हुई वापस जमीन पर जा पहुंची। हम सब जीवन में आगे बढ़ना चाहते हैं, उन्नति करना चाहते हैं। जीवन में आगे बढ़ने के लिए कई बार हमें दूसरों की मदद भी लेनी पड़ती है। दूसरों की मदद लेना कोई बुरी बात नहीं। हम एक दूसरे की मदद के बिना आगे बढ़ ही नहीं सकते, लेकिन हर काम में हर समय दूसरों का मुंह ताकते रहना भी ठीक नहीं। यदि अपने कामों के लिए सदैव दूसरों पर निर्भर रहने की आदत डाल लेंगे, तो हम तभी तक सफल रह सकेंगे जब तक दूसरा चाहेगा। 

जैसे ही उसने अपनी सहायता का हाथ खींचा, हमारी हालत उस मकड़ी जैसी हो जानी निश्‍चित है जो हवा के एक ही झोंके से चट्टान से उड़ती हुई वापस जमीन पर जा पहुंची। उस मकड़ी की तरह जो लोग बिना अपनी योग्यता और सामर्थ्य के किसी के सहारे या किसी संयोगवश ऊंचाई पर पहुंच जाते हैं, वे एक हल्के से आघात से ही फौरन नीचे आ जाते हैं। ऊंचाई पर केवल वही लोग टिक पाते हैं, जो अपनी योग्यता और मेहनत से कोई मुकाम हासिल करते हैं। हम दूसरों की मदद हासिल कर लें और जीवन में आगे बढ़ें, लेकिन उस मदद से हम जिस मुकाम पर पहुंच गए हैं, स्वयं को उसके योग्य भी तो बनाएं!

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