Thursday, April 30, 2015

निंदा और प्रशंसा


रज्जूराम धार्मिक स्वभाव  का व्यक्ति था। उसके पास एक व्यापारी का लड़का रोज पढ़ने के लिए आया करता था। एक दिन उस लड़के ने कीमती गहने पहन रखे थे। छज्जूराम ने उसके गहने उतारकर रख लिए और पढ़ाने के बाद बिना गहनों के घर भेज दिया। लड़का घर पहुंचा तो मां ने पूछा, ’बेटा, गहने कहां गए?’ उसने बताया कि छज्जूराम ने उतार लिए हैं। मां ने पड़ोस की स्त्री से यह बात कही। उस स्त्री ने दूसरी से यह बात कही और इस तरह दूसरी से तीसरी होते हुए यह बात फैल गई। सभी कहने लगे कि छज्जूराम लुटेरा है, उसकी नीयत खराब है। उसकी निंदा घर-घर में होने लगी। इतने में लड़के का पिता आया तो उसे अपनी पत्नी से इस बात का पता चला। वह छज्जूराम के घर पहुंचा। छज्जूराम ने उसे गहने सौंपते हुए कहा, ’मैंने जान-बूझकर गहने उतार लिए थे। मुझे डर था कि कहीं कोई इन्हें बच्चे से छीन न ले। मैंने यह सोचकर रख लिया था कि आपको आकर सौंप दूंगा। इतने छोटे बच्चे को इस तरह कीमती गहने न पहनाएं।’ लड़के का पिता घर आया। उसने कहा, ’छज्जूराम जी बहुत समझदार और ईमानदार व्यक्ति हैं।’ यह बात भी एक कान से दूसरे कान तक पहुंची और हर ओर छज्जूराम की प्रशंसा होने लगी। जो लोग उसकी निंदा कर रहे थे वही सराहना करने लगे। जब छज्जूराम को अपनी निंदा और स्तुति की बात मालूम हुई तो उसने दो चुटकियों में राख लेकर फेंक दी। लोगों ने जब इसका कारण पूछा तो छज्जूराम ने कहा, ’यह निंदा की चुटकी है और यह है प्रशंसा की चुटकी। दोनों ही फेंकने लायक हैं। दुनिया द्वारा की गई निंदा और प्रशंसा पर ध्यान नहीं देना चाहिए। 

Wednesday, April 29, 2015

राजा का फैसला



यह उन दिनों  की बात है, जब गौतम बुद्ध की ख्याति धीरे-धीरे फैल रही थी। एक सम्राट ने किसी चोर को मृत्युदंड दिया। चोर को मारने के लिए एक चांडाल को बुलाया गया। उसने चोर को मारने से इन्कार कर दिया। उसे बहुत समझाया गया लेकिन वह नहीं माना। राजा ने आज्ञा दी, ’राजाज्ञा के विरुद्ध आचरण करने के लिए इसे मौत के घाट उतार दिया जाए।’ अब उसे मारने के लिए उसके छोटे भाई को बुलाया गया। उसने भी उसे मारने से मना कर दिया। राजा ने उसे भी मृत्युदंड देने की घोषणा की। फिर उससे छोटे भाई को बुलाया गया। इस प्रकार पांच भाई बुलाए गए लेकिन सब ने किसी को भी मारने से इन्कार कर दिया। आखिर में सबसे छोटे भाई को बुलाया गया। उसने भी ऐसा ही किया। उसे भी मृत्युदंड की सजा मिली।

तभी उनकी बूढ़ी मां वहां आ पहुंची। वह राजा से प्रार्थना करने लगी, ’महाराज, आप इसे मारने का आदेश न दें।’ राजा को आश्‍चर्य हुआ। उसने पूछा, ’तुम्हें अपने पांच पुत्रों को मृ्त्युदंड दिए जाने का तो कोई दु:ख नहीं हुआ लेकिन जब इसे सजा सुनाई गई तो तुम दुखी हो गई। ऐसा क्यों?’ बुढ़िया ने कहा, ’मेरे उन पांच पुत्रों पर तथागत का उपदेश पूर्ण रूप से काम कर रहा था इसलिए मुझे उनके मरने पर दु:ख नहीं होगा। छोटा बेटा अभी बच्चा है इसलिए थोड़ा कच्चा भी है। तथागत का उपदेश अभी इस पर पूर्ण रूप से जम नहीं पाया है। मुझे लगता है कि मरते वक्त यह अपनी भावना को दूषित बनाकर कहीं अधोगति में न चला जाए इसलिए मैं इसके जीवन की प्रार्थना कर रही हूं।’ राजा का क्रोध शांत हो गया। उसने कहा, ’तुमने मेरी आंखें खोल दीं। मुझे बताओ तथागत कहां हैं।’ बुढ़िया ने कहा, ’यह तो पता नहीं लेकिन वह कभी-कभी भिक्षा के लिए मेरे घर आते हैं।’ राजा भी तथागत की शरण में चला गया। 

Tuesday, April 28, 2015

प्रयास का लाभ


एक बालक ईश्‍वर  का परम भक्त था। एक रात उसने स्वप्न में देखा कि उसके कमरे में अचानक अत्यधिक प्रकाश फैल गया और स्वयं ईश्‍वर उसके सम्मुख खड़े हैं। ईश्‍वर ने कहा, ’तुम मेरे भक्त हो इसलिए मैं तुम्हें एक कार्य सौंप रहा हूं। सुबह अपने घर के बाहर तुम्हें एक बड़ी चट्टान नजर आएगी। तुम्हें उसे धकेलने का कार्य करना है।’वह बालक ईश्‍वर में दृढ़ विश्‍वास रखता था, इसलिए उसने सोच-विचार किए बिना उनके आदेश को माना। सुबह जब उठा तो उसने देखा कि उसके घर के बाहर वास्तव में एक बड़ी-सी चट्टान थी। वह पूजा-पाठ करने के बाद चट्टान को धकेलने में जुट गया। आते-जाते लोग उसे आश्‍चर्य से देख रहे थे और समझा रहे थे, ’चट्टान नहीं खिसकेगी, तुम व्यर्थ प्रयास मत करो।’ वह बालक प्रभु का आदेश मानकर नियमित यत्न करते हुए वर्षों तक इस कार्य में लगा रहा। इस दौरान उसका शरीर मजबूत हो गया, भुजाएं भी बलिष्ठ हो गईं लेकिन वह निराश होने लगा कि इतने प्रयासों के बावजूद चट्टान तो रत्ती भर भी नहीं खिसकी। उसे लगा कि अब उसे यह कार्य बंद कर देना चाहिए। वह पछता रहा था कि बेकार ही उसने स्वप्न की बात सच मान ली। संयोग से उसी रात उसे फिर ईश्‍वर के दर्शन हुए। बालक ने ईश्‍वर से पूछा कि उन्होंने उसे किस कार्य में लगा दिया है, चट्टान तो खिसक नहीं रही है। उसे इतने परिश्रम का क्या फल मिला? इस पर ईश्‍वर मुस्कराए और बोले, ’कोई भी कार्य कभी व्यर्थ नहीं होता। तुम यह क्यों नहीं देखते कि पहले तुम शारीरिक रूप से कमजोर थे, अब ताकतवर बन चुके हो। तुम्हारे जीवन से आलस्य जाता रहा और तुम परिश्रमी हो गए हो। हम अपने हर प्रयत्न से प्रत्यक्ष लाभ की कामना करने लगते हैं लेकिन हम भूल जाते हैं कि हरेक प्रयास में कई परोक्ष लाभ भी छिपे होते हैं।’

Monday, April 27, 2015

पुरुषार्थ असली हीरा


रघुवीर नामक एक राजा बहुत ही ईमानदार, नेक दिल व कुशल शासक था। वह अपनी प्रजा की संतुष्टि के लिए हर संभव कोशिश करता था। वह  वेश बदलकर अपनी प्रजा के दु:ख-दर्द को समझता और उन्हें दूर करने का प्रयास करता। एक दिन वह ऐसे ही वेश बदलकर घूम रहा था। घूमता-घूमता वह घने जंगल तक पहुंच गया। जंगल में उसने देखा कि एक बूढ़ा लकड़हारा पसीने से लथपथ होकर लकड़ियां काट रहा है। तभी उसकी नजर लकड़हारे के पास एक चट्टान से फूटती तेज रोशनी पर पड़ी। राजा की उत्सुकता जगी। वह रोशनी के करीब पहुंचा। वहां पहुंच कर वह दंग रह गया। उसने देखा कि जहां से रोशनी फूट रही थी वहां बेशुमार हीरे दबे हुए थे लेकिन लकड़हारे को उनसे कोई मतलब नहीं था। वह उनसे बेखबर अपने काम में लगा हुआ था। राजा लकड़हारे के पास जाकर बोला, ’बाबा, आपके नजदीक ही एक चट्टान में असंख्य हीरे धंसे पड़े हैं और उनकी रोशनी यहां तक पहुंच रही है। क्या आपको उन हीरों की जानकारी नहीं है? यदि आप इनमें से एक हीरा भी निकालकर बेच दें तो आप आजीवन बिना मेहनत किए अच्छे से अच्छा खा-पीकर अपना जीवन गुजार सकते हैं।’

राजा की बात पर लकड़हारे ने विनम्रतापूर्वक कहा, ’बेटा, ये हीरे मैं बरसों से यहां देख रहा हूं। जब ईश्‍वर ने मुझे हाथ-पैर रूपी सजीव हीरे दिए हैं तो मैं बिना मेहनत किए इन बेजान हीरों की मदद से अपना जीवनयापन क्यों करूं? इन हीरों से मैं आलसी हो जाऊंगा और मेरे हाथ-पैर बेकार हो जाएंगे। मुझे कई बीमारियां घेर लेंगी। ऐसे में लाखों बेजान हीरे भी मेरी बीमारी को दूर नहीं कर पाएंगे। बीमारियों को दूर भगाने का सबसे सरल व उत्तम तरीका कड़ी मेहनत है। पुरुषार्थ ही मनुष्य को स्वास्थ्य, खुशी व लंबी आयु प्रदान करता है। वास्तव में पुरुषार्थ ही असली हीरा है।’ 

Friday, April 24, 2015

कड़वे बोलों का नुकसान


एक युवक शिक्षित व गुणवान था लेकिन वह बात-बात में लोगों से बड़े ही कड़वे शब्द बोलता था। अनेक बड़े-बूढ़े उसे हर तरह से समझा-समझा कर हार गए थे लेकिन उसमें कोई परिवर्तन नहीं आया। उस युवक का एक बहुत ही प्रिय मित्र था। मित्र भी युवक के कड़वे बोल से परिचित था। 

वह युवक जब-तब अपने मित्र को भी छोटी-मोटी बात पर तीखा बोल देता था, किंतु मित्र उसकी बातों का बुरा नहीं मानता था क्योंकि वह जानता था कि युवक अंदर से होनहार और साफ मन का है। जब इस मित्र को अहसास हुआ कि युवक के कड़वे बोल के कारण अधिकतर लोग उसे घृणा की नजरों से देखने लगे हैं, तो उसने उसे सुधारने की सोची। इसके लिए मित्र ने युवक को अपने घर पर आमंत्रित किया। कुछ देर इधर-उधर की बातें करने के बाद उसने युवक को एक पेय पदार्थ दिया। यह अत्यंत मीठा था। इसे पीते ही युवक खुश हो गया और मित्र से बोला, ’वाह! इसे पीते ही मन आनंदित हो गया।’

थोड़ी देर बाद मित्र एक और पेय लेकर आया और बोला, ’यह एक खास चीज है। इसे पीकर देखो।’ एक घूंट पीते ही युवक का चेहरा विकृत हो गया। वह नाक-भौं सिकोड़ते हुए बोला, ’यह तो बहुत ही कड़वा है।’ युवक की इस बात पर मुस्कराता हुआ मित्र बोला, ’अच्छा, क्या तुम्हारी जुबान जानती है कि कड़वा क्या होता है?’ इस पर युवक बोला, ’कड़वी और खराब चीजें तो जुबान पर आते ही पता चल जाती है!’ मित्र ने कहा, ’नहीं, कड़वी चीजें जुबान पर आते ही पता नहीं चलतीं। 

अगर ऐसा होता तो लोग अपनी जुबान से कड़वी बातें क्यों निकालते?’ यह सुनकर युवक लज्जित हो गया। मित्र ने समझाया, ’जो व्यक्ति कटु वचन बोलता है वह किसी व्यक्ति को दु:ख पहुंचाने से पहले अपनी जुबान को ऐसे ही गंदा करता है जैसे इस कड़वे पेय ने तुम्हारी जुबान को कड़वा कर दिया है।’ 

Wednesday, April 22, 2015

आत्मसुख ईश्‍वरीय अनुग्रह


भगवान के दो भक्त थे। एक बड़ा ईमानदार था, दूसरा बेईमान। पहला दिनभर मेहनत से काम करता। न कुछ चुराता और न फालतू समय बरबाद करता, लेकिन शाम को जब भगवान के पास जाता तो अनेक इच्छाएं रखता-‘मुझे घर चाहिए, पत्नी चाहिए, पुत्र चाहिए और चाहिए विपुल धन-संपत्ति, जिससे कि सुख और सुविधापूर्वक रह सकूँ।‘ दूसरा व्यक्ति दिनभर दाएँ-बाएँ करता।  जहॉं अवसर मिलता कुछ-न-कुछ बचाकर चुपचाप अपनी जेब में रख लेता। जो कुछ मिलता, अपने लिए अधिक रखकर दूसरों को कम देता। शाम को भगवान के पास जाता। प्रेम और श्रद्धा से सिर झुकाता और चुपचाप अपने घर लौट जाता। बेईमान की उन्नति होती गई। यह देखकर ईमानदार को बड़ी जलन हुई। अपने भगवान से शिकायत की-‘प्रभुवर, मैंने आपकी भक्ति सचाई और ईमानदारी से की, पर आपने दिया बेईमान को सब कुछ।‘ 

भगवान हँसे और बोले, ‘वत्स, बार-बार मॉंगकर परेशान करने की अपेक्षा तो तुम भी वैसा ही करते तो क्या बुरा था? अपने किए का भरपूर इनाम मॉंगते रहने पर तुम्हारी सेवा और साधना का महत्व ही क्या रह जाता?  आत्मसंतोष के रूप में हमारा जो स्नेह और आशीर्वाद तुम्हें मिलता है, क्या उतने से संतुष्ट नहीं रह सकते?‘ भक्त का समाधान हो गया। उसने अनुभव किया आत्मसुख और आत्मशक्ति के रूप में जो मिलता है वह ईश्‍वर का सबसे बड़ा अनुग्रह है।  

Tuesday, April 21, 2015

संस्कृति की समझ


एक बार स्वामी विवेकानंद अमेरिका के एक विश्‍वविद्यालय में व्याख्यान दे रहे थे। उसमें बड़ी संख्या में छात्र, अध्यापक और विभिन्न विषयों के विद्वान मौजूद थे, जो बड़ी उत्सुकता से स्वामी जी को सुन रहे थे। उनके भाषण का मुख्य विषय था ‘भारतीय संस्कृति तथा आध्यात्म का रहस्य’। स्वामी जी ने कहा कि भारतीय संस्कृति तथा धर्म के सभी तत्वों का वैज्ञानिक महत्व है, इसलिए संस्कृति तथा आध्यात्म को वैज्ञानिकता से जोड़ कर देखा जाता है। यह सुनकर एक अमेरिकी दखल देते हुए बीच में उठकर बोला, ’वास्तव में आपकी संस्कृति महान है तभी तो आपके यहां देवी लक्ष्मी का वाहन उल्लू बताया गया है, जिसे दिन में दिखाई भी नहीं देता। अब जरा बताइए कि उल्लू को देवी लक्ष्मी का वाहन बताने के पीछे क्या वैज्ञानिक तर्क है?’उस व्यक्ति का प्रश्‍न सुनकर स्वामी जी अत्यंत सहजतापूर्वक बोले, ’पश्‍चिमी देशों की तरह भारत में धन को ही सब कुछ नहीं माना जाता। हमारे ऋषि-मुनियों ने चेतावनी दी है कि लक्ष्मी रूपी धन के असीमित मात्रा में पास आते ही मनुष्य आंखें होते हुए भी उल्लू की तरह अंधा हो जाता है। इसी का संकेत देने के लिए लक्ष्मी का वाहन ’उल्लू’ बताया गया है और इसके पीछे यही वैज्ञानिक तर्क है।’ स्वामी जी के इस जवाब पर सभी वाह-वाह कर उठे। इसके बाद स्वामी जी फिर बोले, ’सरस्वती ज्ञान और विज्ञान की प्रतीक है। यह मानव का विवेक जागृत करने वाली देवी है इसलिए सरस्वती का वाहन हंस बताया गया है, जो नीर-क्षीर विवेक का प्रतीक है। अब आप यह भली-भांति समझ गए होंगे कि संस्कृति व धर्म के सभी तत्वों के पीछे वैज्ञानिक तर्क छिपे हुए हैं।’ वहां उपस्थित सभी लोगों के साथ ही वह व्यक्ति भी देवी-देवताओं के वाहनों की यह अवधारणा सुनकर स्वामी जी के प्रति नत-मस्तक हो गया और उस दिन से भारतीय संस्कृति का प्रशंसक बन गया। 

Monday, April 20, 2015

ईश्‍वर का साक्षात्कार

एक बार कुछ अंग्रेज पादरी एक पत्रकार को अपने साथ लेकर महर्षि रमण के पास पहुंचे। उन्होंने महर्षि से कहा, ’कहा जाता है कि आप घंटों ईश्‍वर का साक्षात्कार करते हैं। आज हम सभी इस बात को स्वयं देखने आए हैं कि आप ईश्‍वर से कैसे मिलते हैं?

यदि आपकी ईश्‍वर से साक्षात्कार की बात निराधार हुई तो यह पत्रकार आपके चमत्कार का भंडाफोड़ कर देगा।’ उनकी बात सुनकर रमण महर्षि मुस्कराए और बोले, ’आप सबेरे मेरे साथ चलकर स्वयं भी ईश्‍वर का साक्षात्कार कर सकते हैं।’ पादरी व पत्रकार रमण  महर्षि को इतनी सरलता से यह कहते देख हैरान रह गए। वह सुबह उनके पास आने की बात कहकर लौट गए। रात भर उनमें से किसी को भी नींद नहीं आई और वे पूरी रात आपस में यही विचार-विमर्श करते रहे कि महर्षि कैसे उनका साक्षात्कार ईश्‍वर से कराएंगे? अगले दिन सबेरा होते ही वे रमण महर्षि के आश्रम में पहुंच गए। 

महर्षि पूजा-अर्चना के बाद पादरियों को साथ लेकर जंगल की ओर चल दिए। जंगल में वह नदी किनारे स्थित एक झोपड़ी में पहुंचे। वहां लेटे हुए एक कुष्ठ रोगी को उन्होंने प्रेम से उठाया। उसके शरीर पर औषधि युक्त तेल की मालिश की। मालिश के बाद उसे नहलाया, उसके कपड़े बदले। चूल्हा जलाकर उसके लिए दलिया बनाया। उसके बाद बड़े प्रेम से उसे अपने हाथों से दलिया खिलाया। फिर उन्होंने पास ही चटाई पर बैठे पादरियों व पत्रकार से कहा, ’मैं इस तरह प्रतिदिन ईश्‍वर की पूजा करता हूं। उससे बातें करता हूं। 

क्या आपको लगता है कि मैं कोई पाखंड करता हूं?’ पादरी तथा पत्रकार रमण महर्षि के चरणों में गिर गए। पत्रकार ने इंग्लैंड से प्रकाशित एक समाचार पत्र में अपने संस्मरण में लिखा, ’उस दिन हम सबको यह लगा कि हम ईसा-मसीह के साक्षात दर्शन कर रहे हैं।’ 

Sunday, April 19, 2015

दीवार


किसी महिला पत्रकार को यह पता चला कि एक बहुत वृद्ध यहूदी सज्जन लंबे समय से येरुशलम की पश्‍चिमी दीवार पर रोजाना बिलानागा प्रार्थना करते आ रहे हैं। उसने उनसे मिलने का तय किया। वह येरुशलम की पश्‍चिमी प्रार्थना दीवार पर गई और उसने वृद्ध सज्जन को प्रार्थना करते देखा। लगभग 45 मिनट तक प्रार्थना करने के बाद वे अपनी छड़ी के सहारे धीरे-धीरे चलकर वापस जाने लगे।

महिला पत्रकार उनके पास गई और अभिवादन करके बोली, नमस्ते, मैं सीएनएन की पत्रकार रेबेका स्मिथ हूं। आपका नाम क्या है?मौरिस फिशिबिएन, वृद्ध ने कहा. मैंने सुना है कि आप बहुत लंबे समय से यहां रोज प्रार्थना करते आ रहे हैं। आप ऐसा कब से कर रहे हैं? लगभग 60 साल से। 60 साल! यह तो वाकई बहुत लंबा अरसा है! तो, आप यहां किसलिए प्रार्थना करते हैं?

मैं यह प्रार्थना करता हूं कि ईसाइयों, यहू
दियों, और मुसलमानों के बीच शांति स्थापित हो। मैं युद्ध और नफरत के खात्मे के लिए प्रार्थना करता हूं। मैं यह भी प्रार्थना करता हूं कि बच्चे बड़े होकर जिम्मेदार इंसान बनें और सब लोग प्रेम से एकजुट रहें। यह तो बहुत अच्छी बात है और आपको यह प्रार्थना करने से कैसी अनुभूति होती है? मुझे यह लगता है कि मैं 60 सालों से सिर्फ एक दीवार से ही बातें कर रहा हूं।

Saturday, April 18, 2015

ईश्‍वर की संतान


किसी गांव में एक वृद्ध व्यक्ति अपनी झोपड़ी के सामने बैठा जूते बना रहा था। तभी वहां गेरुआ वस्त्र पहने एक संत उसके पास आए और बोले, ‘बाबा, बहुत दूर से चल कर आ रहा हूं। मुझे बहुत तेज प्यास लगी है। क्या पीने को पानी मिलेगा?’ वृद्ध व्यक्ति की आंखें आश्‍चर्य से उन्हें देखती रह गईं। उसे संत के वचनों पर विश्‍वास नहीं हो रहा था।  वह असमंजस में पड़ गया कि संत को आखिर क्या उत्तर दे? संत समझ गए कि यह व्यक्ति द्वंद्व में फंस गया है। कुछ उत्तर न मिलते देख उन्होंने फिर कहा, ‘बाबा, अगर पानी नहीं हो तो किसी दूसरे स्थान पर जाकर अपनी प्यास बुझाऊं।’ वृद्ध हाथ जोड़कर बोला, ‘स्वामी जी, आप स्वयं देख रहे हैं कि मैं जूते बना रहा हूं। क्या मेरे हाथ का दिया जल ग्रहण कर सकेंगे? गांव के लोग मेरे दिए जल को पीना तो दूर, छूना भी स्वीकार नहीं करते।’वृद्ध की बात सुनकर संत ठहाका लगाकर हंस पड़े। 

संत के इस तरह हंसने से वृद्ध और भी ज्यादा डर गया लेकिन दूसरे ही क्षण स्वामी जी शांत भाव से बोले, ‘यह तो मैं अपनी खुली आंखों से देख ही रहा हूं लेकिन मुझे इससे कोई सरोकार नहीं। तुम मुझे खुशी-खुशी जल पिलाओ। यदि तुम्हें कोई आपत्ति न हो तो मैं भोजन भी तुम्हारे घर करूंगा।’ स्वामी जी की बात सुनकर वृद्ध व्यक्ति के आश्‍चर्य की कोई सीमा नहीं रही। वह नतमस्तक हो गया।  स्वामी जी ने वृद्ध की मानसिक उद्विग्नता को शांत करते हुए कहा, ‘इस धरती पर कोई छोटा-बड़ा नहीं है। हम सब एक ही ईश्‍वर की संतान है। उस ईश्‍वर का अंश प्रत्येक जीव में विद्यमान है। जो ईश्‍वर की संतान को छोटा और हीन समझता है, उससे घृणा करता है, उसे ईश्‍वर भी उसी तरह देखते हैं और वैसा ही व्यवहार करते हैं।’ स्वामी जी ने उस वृद्ध व्यक्ति के घर पानी ही नहीं पिया, वरन प्रेम पूर्वक भोजन भी ग्रहण किया। वह स्वामी विवेकानंद थे।

Thursday, April 16, 2015

सबसे बड़ा धन


अ़़हमद नामक एक फकीर थे। उनका ज्यादातर वक्त इबादत या लोगों की मदद में बीतता था। वह लोगों की समस्याओं का समाधान चुटकियों में कर देते थे। वह जो उपाय बताते या तरीके सुझाते, लोग उन पर आंख मूंदकर अमल करते थे। एक दिन उनके पड़ोस में रहने वाले व्यापारी बहराम के घर से रोने-धोने व शोर-शराबे की आवाजें सुनाई पड़ीं। यह सुनते ही अहमद बहराम के घर जा पहुंचे। वहां पहुंचने पर अहमद को पता चला कि बहराम जब खरीदा गया माल ऊंटों पर लादकर घर ला रहा था तो रास्ते में डाकुओं ने उसका सारा सामान लूट लिया। अपनी सारी संपत्ति लुट जाने के कारण वह पागल-सा हो गया और आत्महत्या करने जा रहा था। ऐन मौके पर कुछ लोगों ने आकर उसे आत्महत्या जैसा घृणित कार्य करने से बचा लिया। खुदकुशी न कर पाने के कारण वह आवेश में बिना सोचे-समझे रो-रो कर बोले जा रहा था, ’कंगाल होकर जीने का क्या मतलब है। मैं आखिर क्यों जिंदा रहूं?’ अहमद को सामने खड़ा देखकर उसे थोड़ी राहत मिली।

अहमद ने उसके पास आकर पूछा, ’बहराम, जब तुम पैदा हुए थे, तो क्या वह धन तुम्हारे पास था जो लुटेरों ने लूट लिया?’ यह सुनकर बहराम बोला, ’नहीं, मैंने बड़ा होने पर अपनी मेहनत से वह दौलत इकट्ठी की थी।’ इस पर अहमद बोले, ’क्या लुटेरों ने मेहनत करने वाले तुम्हारे हाथ-पैरों को भी लूट लिया है?’ बहराम बोला, ’नहीं’। इस पर अहमद ने कहा, ’तुम्हें तो किसी ने नहीं लूटा! तुम्हारी असली दौलत यानी तुम्हारे हाथ-पैर सही सलामत हैं और फिर तुम्हारे दिल में रहम है। इनसे बढ़कर कोई और दौलत नहीं है। फिर तुम अपने-आप को कंगाल कैसे बता रहे हो?’ अहमद के इन शब्दों को सुनकर बहराम का सारा दु:ख-दर्द दूर हो गया।  उसने इस बात पर अफसोस जाहिर किया कि वह मरने की बात सोच रहा था। 

Wednesday, April 15, 2015

उकाब और मकड़ी


एक उकाब खूब ऊंची-ऊंची उड़ान भरता और पहाड़ों की चोटियों पर बैठा मजे से नीचे का दृश्य देखता। एक बार जब वह उड़ने लगा तो एक मकड़ी उसके पैरों से चिपक गई और साथ-साथ पहाड़ की चोटी तक जा पहुंची। वहां पहुंचकर वह उकाब के पैरों को छोड़कर दूर एक चट्टान पर जा बैठी और कहने लगी, ‘देखो मैं कितनी ऊंचाई पर पहुंच गई हूं।’ इतने में हवा का एक तेज झोंका आया। उकाब तो मजे से वहां बैठा रहा, उसे आदत थी। उतनी ऊंचाई पर तेज हवा के सामने टिके रहने का कौशल उसे मालूम था लेकिन मकड़ी एक ही झटके में चट्टान से गिरकर हवा में लहराती हुई वापस जमीन पर जा पहुंची। हम सब जीवन में आगे बढ़ना चाहते हैं, उन्नति करना चाहते हैं। जीवन में आगे बढ़ने के लिए कई बार हमें दूसरों की मदद भी लेनी पड़ती है। दूसरों की मदद लेना कोई बुरी बात नहीं। हम एक दूसरे की मदद के बिना आगे बढ़ ही नहीं सकते, लेकिन हर काम में हर समय दूसरों का मुंह ताकते रहना भी ठीक नहीं। यदि अपने कामों के लिए सदैव दूसरों पर निर्भर रहने की आदत डाल लेंगे, तो हम तभी तक सफल रह सकेंगे जब तक दूसरा चाहेगा। 

जैसे ही उसने अपनी सहायता का हाथ खींचा, हमारी हालत उस मकड़ी जैसी हो जानी निश्‍चित है जो हवा के एक ही झोंके से चट्टान से उड़ती हुई वापस जमीन पर जा पहुंची। उस मकड़ी की तरह जो लोग बिना अपनी योग्यता और सामर्थ्य के किसी के सहारे या किसी संयोगवश ऊंचाई पर पहुंच जाते हैं, वे एक हल्के से आघात से ही फौरन नीचे आ जाते हैं। ऊंचाई पर केवल वही लोग टिक पाते हैं, जो अपनी योग्यता और मेहनत से कोई मुकाम हासिल करते हैं। हम दूसरों की मदद हासिल कर लें और जीवन में आगे बढ़ें, लेकिन उस मदद से हम जिस मुकाम पर पहुंच गए हैं, स्वयं को उसके योग्य भी तो बनाएं!

Tuesday, April 14, 2015

प्रत्यक्ष ज्ञान


वाग्भट्ट धन्वंतरि के गुरुकुल में शिक्षा ग्रहण करते थे। एक बार उनकी पीठ पर फोड़ा निकल आया। धन्वंतरि ने उस फोड़े के इलाज के लिए उन्हें वन में जाकर कुछ जड़ी-बूटियां लाने को कहा। वाग्भट्ट धन्वंतरि का आदेश पाकर उन बूटियों की खोज करने वन में चले गए। वह कई दिनों तक भटकते रहे। इधर-उधर काफी खोजने के बाद उन्हें कई प्रकार की दूसरी जड़ी-बूटियां मिलीं, लेकिन जो धन्वंतरि ने कहा था, वह कहीं नहीं मिली। फिर वे अन्य बूटियां ही अपने झोले में भरकर ले आए। उन्हें धन्वंतरि के सामने रखते हुए वाग्भट्ट ने कहा, ’महात्मन, भरसक प्रयासों के बाद भी मैं आपके द्वारा बताई गई जड़ी-बूटियों को खोजने में असफल रहा परंतु मैं अपने विवेकानुसार अन्य बूटियां ले आया हूं। इनमें से आप स्वयं देख लें। मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूं।’ धन्वंतरि ने वाग्भट्ट द्वारा लाई गई बूटियों को एक तरफ रख दिया और आश्रम में से एक जड़ी लाकर उसे पीस कर उसका लेप वाग्भट्ट के फोड़े पर लगा दिया। आश्‍चर्यजनक रूप से वाग्भट्ट का वह फोड़ा तीन दिनों में ही ठीक हो गया। स्वस्थ होने के बाद वाग्भट्ट ने धन्वंतरि से पूछा, ’गुरुदेव, जो जड़ी आपने मेरे फोड़े पर लगाई वह तो आश्रम में ही उगी हुई थी, फिर आपने मुझे वन में क्यों भेजा? जड़ी-बूटी खोजने में मेरा समय नष्ट हुआ और परिश्रम भी अकारथ चला गया।’ धन्वंतरि बोले ’वत्स, तुम्हारा न तो समय ही नष्ट हुआ और न ही परिश्रम व्यर्थ गया, बल्कि तुम्हें इसी कारण नई-नई बूटियों की पहचान हुई। तुमने कई दुर्लभ जड़ी- बूटियों को खोज निकाला जो भविष्य में अनेक रोगों को दूर करने में प्रयोग में लाई जाएंगी इसलिए तुम्हें तो प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त हुआ है। अब तुम इसके विशेषज्ञ जाने जाओगे। इसके अलावा तुम्हारे इस प्रयास से यह भी मालूम हुआ कि अपने रोग के निदान के लिए तुम कितने प्रयत्नशील हो।’ वाग्भट्ट अपने गुरु का आशय समझकर उनके प्रति नतमस्तक हो गए।

Monday, April 13, 2015

देह तो नश्‍वर है


एक राजा को फूलों का शौक था। उसने सुंदर, सुगंधित फूलों के 25 गमले अपने आंगन में रखवाए थे। उनकी देखभाल के लिए एक नौकर रखा गया था। एक दिन नौकर से एक गमला टूट गया। राजा को पता चला तो वह आगबबूला हो गया। उसने आदेश दिया कि दो महीने के बाद नौकर को फांसी दे दी जाए। मंत्री ने राजा को बहुत समझाया, लेकिन राजा ने एक न मानी। फिर राजा ने नगर में घोषणा करवा दी कि जो कोई टूटे हुए गमले की मरम्मत कर उसे ज्यों-का-त्यों बना देगा, उसे मुंहमांगा पुरस्कार दिया जाएगा। कई लोग अपना भाग्य आजमाने के लिए आए लेकिन असफल रहे।

एक दिन एक महात्मा नगर में पधारे। उनके कान तक भी गमले वाली बात पहुंची। वह राजदरबार में गए और बोले, ’राजन, तेरे टूटे गमले को जोड़ने की जिम्मेदारी मैं लेता हूं लेकिन मैं तुझे समझाना चाहता हूं कि यह देह अमर नहीं तो मिट्टी के गमले कैसे अमर रह सकते हैं। ये तो फूटेंगे, गलेंगे, मिटेंगे। पौधा भी सूखेगा।’ इसके बावजूद राजा अपनी बात पर अडिग रहा। आखिर राजा उन्हें वहां ले गया जहां गमले रखे हुए थे। महात्मा ने एक डंडा उठाया और उन्होंने सभी गमले तोड़ दिए। थोड़ी देर तक तो राजा चकित होकर देखता रहा। उसे लगा यह गमले जोड़ने का कोई नया विज्ञान होगा। महात्मा को उसी तरह खड़ा देख उसने आश्‍चर्य से पूछा, ’ये आपने क्या किया?’ महात्मा बोले, ’मैंने चौबीस आदमियों की जान बचाई है। एक गमला टूटने से एक को फांसी लग रही है। चौबीस गमले भी किसी-न-किसी के हाथ से ऐसे ही टूटेंगे तो उन चौबीसों को भी फांसी लगेगी। सो मैंने गमले तोड़कर उन लोगों की जान बचाई है।’ राजा महात्मा की बात समझ गया। उसने हाथ जोड़कर उनसे क्षमा मांगी और नौकर की फांसी का हुक्म वापस ले लिया। 

Friday, April 10, 2015

सत्य की राह


महात्मा गांधी उन दिनों स्कूल के छात्र थे। उनके स्कूल में खेलकूद अनिवार्य था और यदि कोई विद्यार्थी समय पर मैदान में उपस्थित नहीं होता, तो उसे जुर्माना देना पड़ता था। गांधीजी को खेलकूद में अधिक रुचि नहीं थी, फिर भी वह निर्धारित समय पर मैदान में पहुंच जाते थे। उन दिनों समय देखने के लिए घरों में घड़ियां कम ही होती थीं लेकिन, वह अंदाज से हमेशा समय पर ही पहुंचते। एक दिन गांधीजी अपने पिता की सेवा में लगे हुए थे। उस दिन आसमान में बादल छाए थे इसलिए समय का अंदाजा नहीं हो पा रहा था। जब वह स्कूल पहुंचे तो काफी देर हो चुकी थी। खेलकूद का समय निकल गया था। गांधीजी ने देखा कि मैदान खाली है तो वह अपनी कक्षा में लौट आए। अगले दिन जब अध्यापक को पता चला कि वह स्कूल आकर भी मैदान में नहीं पहुंचे थे, तो उन्होंने इस बारे में उनसे पूछा।

गांधीजी बोले, ’मैं तो आया था किंतु उस समय वहां पर कोई विद्यार्थी नहीं था।’ यह सुनकर अध्यापक बोले, ’तुम देर से क्यों आए? क्या तुम्हें समय का ज्ञान नहीं था?’ गांधीजी बोले, ’मेरे पास घड़ी नहीं थी और कल आसमान में बादल होने की वजह से सही समय का अंदाजा नहीं लग सका।’ अध्यापक को लगा कि गांधीजी झूठ बोल रहे हैं इसलिए उन्होंने उन पर दो आने का जुर्माना कर दिया। जुर्माने की बात सुनकर गांधीजी को रोना आ गया। वह इस बात से आहत थे कि उन्हें उनके शिक्षक ने गलत समझा। उन्होंने सोचा कि जब सच बोलने पर भी सजा मिल सकती है, तो गलती करने के साथ ही झूठ बोलने के दंड का तो अंदाजा ही नहीं लगाया जा सकता। यह सोच कर उन्होंने उसी समय निश्‍चय किया कि वह आजीवन सत्य बोलेंगे और साथ ही अपने अंदर ऐसा आत्मबल पैदा करेंगे कि उनके द्वारा बोले गए सत्य को सभी सत्य ही समझें, उसके झूठ होने का भ्रम न पालें। 

Thursday, April 9, 2015

प्रश्‍न और उत्तर


काशी के एक संत के पास एक छात्र आया और बोला, ’गुरुदेव, आप प्रवचन करते समय कहते हैं कि कटु से कटु वचन बोलने वाले के अंदर भी नरम दिल होता है लेकिन इसका कोई उदाहरण आज तक नहीं मिला।’ प्रश्‍न सुन कर संत गंभीर हो गए। बोले, ’वत्स, इसका जवाब मैं कुछ समय बाद दे पाऊंगा।’ एक महीना बाद छात्र संत के पास पहुंचा। उस समय संत प्रवचन कर रहे थे। प्रवचन समाप्त होने के बाद संत ने गरी का एक सख्त गोला छात्र को दिया और बोले, ’वत्स, इसे तोड़ कर इसकी गरी निकाल कर सभी भक्तों में बांट दो।’ छात्र गोला लेकर उसे तोड़ने लगा।

गोला बहुत सख्त था। बहुत कोशिश करने के बाद भी नहीं टूटा। छात्र ने कहा, ’गुरुदेव यह बहुत कड़ा है। कोई औजार हो तो उससे इसे तोड़ दूं।’ संत बोले, ’औजार लेकर क्या करेगा? कोशिश करो, टूट जाएगा।’ वह फिर तोड़ने लगा। इस बार गोला टूट गया। उसने उसमें से गरी निकाल कर भक्तों को बांट दिया और एक कोने में बैठ गया। एक-एक कर सभी भक्त चले गए। संत भी उठ कर जाने लगे तो छात्र बोला, ’गुरुदेव, अभी तक हमारे प्रश्‍न का उत्तर नहीं मिला कि कठोर आदमी के अंदर नरम दिल कहां होता है।’ संत मुस्करा कर बोले, ’वत्स तुम्हें तुम्हारे प्रश्‍न का उत्तर मिल चुका है लेकिन तुमने उसे समझा नहीं।’ छात्र ने कहा, ’मैं कुछ समझा नहीं गुरुदेव।’ संत ने कहा, ’वत्स, जिस प्रकार कड़े गोले में नरम गरी भरी होती है उसी प्रकार कठोर से कठोर व्यक्ति में भी कहीं न कहीं नरम दिल होता है लेकिन उसे किसी औजार से बाहर नहीं निकाला जा सकता। वह तो बार-बार के प्रयास से ही दिखाई देगा। यदि कोई कटु वचन बोलता है तो उसे भगवान का प्रसाद मान कर ग्रहण करने और उसके प्रति मृदु व्यवहार करने से ही किसी का स्वभाव बदला जा सकता है।’

Wednesday, April 8, 2015

दोषी कौन ?


किसी सेठ के यहां कई कर्मचारी काम करते थे। प्राय: सभी आलसी और कामचोर थे, केवल किरीट बेहद ईमानदार और मेहनती था। वह अपना काम करने के अलावा दूसरों के बचे कार्यों को भी पूरा कर देता था। एक दिन सेठ ने अपने कर्मचारियों को बुलाया और कहा, ’मुझे पता चला है कि कुछ लोग अपना काम ठीक से नहीं कर रहे हैं। इससे व्यापार में घाटा हो रहा है। कामचोर कर्मचारी जल्दी सुधर जाएं अन्यथा उन्हें इसका नतीजा भुगतना होगा।’ सेठ की चेतावनी से कुछ तो सुधर गए लेकिन ज्यादातर ने चेतावनी अनसुनी कर दी। किरीट हमेशा की तरह पहले अपने काम पूरे करता फिर अपने निठल्ले साथियों की मदद में जुट जाता। कुछ दिनों के बाद सेठ ने फिर सभी को बुलाकर कहा, ’मैंने पहचान लिया है कि तुम लोगों में असली कामचोर कौन है। उसके खिलाफ कड़ी कार्रवाई होगी।’ सभी कर्मचारी सोचने लगे कि आज पता नहीं किसकी नौकरी जाएगी। 

कुछ देर की चुप्पी के बाद सेठ ने कहा, ’सबसे बड़ा गुनहगार किरीट है। उसे सजा मिलेगी।’ कर्मचारियों को समझ में नहीं आया कि सेठ क्या कह रहे हैं। एक ने कहा, ’सेठ जी, आप क्या कह रहे हैं, किरीट तो सबसे ज्यादा मेहनती है।’  उसकी यह बात सुनकर सेठ ने कहा, ’तुम ठीक कहते हो। मेहनती और ईमानदार होना तो ठीक है, लेकिन दूसरे को आलसी बनाना ठीक नहीं है। दोषी वही नहीं होता जो कामचोर है बल्कि वह भी उतना ही दोषी है जो कामचोर लोगों के काम को पूरा करके उन्हें और निकम्मा बनाने में मदद करता है।’ सभी कर्मचारी लज्जित हो गए। उन्होंने एक साथ कहा, ’सेठ जी, हम समझ गए कि आप हमसे क्या कहना चाहते हैं। हम आपको वचन देते हैं कि आज के बाद आप को कोई शिकायत नहीं मिलेगी।’ उसके बाद सभी कर्मचारी मन लगाकर काम करने लगे। किरीट को दूसरों के काम करने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। 

Tuesday, April 7, 2015

परिवार और प्रेम



एक दिन एक व्यक्ति  के घर के बाहर बरामदे में चार लोग आकर बैठे। ये चार लोग थे-प्रेम, वैभव, सफलता और नीति। घर में रहने वाले दंपती ने बाहर आकर उन्हें प्रणाम किया और परिचय पूछा। चारों ने बारी-बारी से अपना परिचय दिया। तब दंपती ने आदरपूर्वक उन्हें भीतर आने के लिए आमंत्रित किया। इस पर आगंतुक बोले, ’हम सब को एक साथ अंदर आने की क्या जरूरत है, आप किसी एक को बुला लें।’ दंपती असमंजस में पड़ गया, किसे बुलाएं, किसे छोड़ें। उन्होंने आगंतुकों से थोड़ा समय मांगा और आपस में सलाह करने के लिए वापस घर में आ गए। पूरा परिवार अंदर बैठकर सलाह करने लगा। स्त्री बोली, ’हमें वैभव को ही अंदर बुलाना चाहिए। उसके आने से बाकियों की कमी भी पूरी हो सकती है।’ लेकिन उसकी बात काट कर पति ने कहा, ’वैभव सफलता का मोहताज है। इसलिए सफलता को ही बुलाओ। उसके साथ होने से वैभव अपने आप साथ आ जाएगा।’ इस पर बेटे ने सलाह दी, ’नहीं पिताजी, आप सबसे पहले नीति को बुलाएं। जहां नीति होती है, वहीं सफलता मिलती है, और जहां सफलता मिलती है, वहां वैभव अपने आप आता है।’ इसके बाद सभी बहू की राय जानने के लिए उसकी ओर देखने लगे। वह धीरे से बोली, ’मेरी मानिए तो आप लोग सबसे पहले प्रेम को ही बुलाइए। बाकी सभी पात्र बाहरी जीवन के मददगार हैं, लेकिन घर-परिवार में सबसे बड़ा मित्र प्रेम ही होता है। प्रेम बना रहे तो अन्य आगंतुकों का साहचर्य किसी न किसी उद्यम से हासिल हो ही जाएगा।’ बहू की सलाह पर दंपती ने बाहर आकर प्रेम को निमंत्रित किया। आश्‍चर्य कि जब प्रेम भीतर आया तो उसके पीछे-पीछे बाकी तीनों भी आ गए। अंदर आकर वे बोले, ’आप ने हम तीनों में से किसी एक को बुलाया होता, तो हम अकेले ही आते। पर प्रेम जहां जाता है, वहां हम अवश्य साथ होते हैं।’