राजा भोज अपने दरबार में बैठे थे, तभी द्वारपाल ने आकर सूचना दी, ’महाराज, एक दुबला-पतला, अत्यंत निर्धन युवक आपसे मिलना चाहता है। हमने उससे पूछने की बहुत कोशिश की कि आखिर वह आपसे क्यों मिलना चाहता है, पर वह कुछ नहीं बता रहा। वह बस आपसे मिलने की रट लगाए हुए है।’
राजा भोज ने उस निर्धन युवक को बुलाने की अनुमति दे दी। वह युवक अंदर आया और राजा को नमस्कार कर बोला, ’महाराज, मेरी मां की तबीयत बहुत खराब है, इसलिए मैं मदद के लिए आपके पास चला आया।’ भोज ने यह सुनकर कहा, ’तुम्हारी मां का इलाज होना ही चाहिए।’ उन्होंने अपने खजांची से उस निर्धन युवक को एक हजार स्वर्ण मुद्राएं देने को कहा।
युवक बोला, ’क्षमा करिए, मां की चिकित्सा के लिए पचास स्वर्ण मुद्राएं ही पर्याप्त हैं। मां के स्वस्थ होने पर मैं कोई-न-कोई काम अवश्य ढूंढ लूंगा।’ युवक की यह बात सुनकर राजा भोज समेत वहां उपस्थित सभी लोग आश्चर्यचकित रह गए। भोज बोले, ’युवक, मैं तुम्हें स्वेच्छा से एक हजार स्वर्ण मुद्राएं दे रहा हूं किंतु तुम उन्हें लेने से इन्कार क्यों कर रहे हो?’ युवक ने उत्तर दिया, ’महाराज, मैं लेने से इन्कार नहीं कर रहा किंतु इस समय मुझे वास्तव में मात्र पचास स्वर्ण मुद्राओं की आवश्यकता है। फिर मैं अधिक क्यों लूं? राजकोष का धन भी तो हमारा ही है और यदि हम उसे व्यर्थ बर्बाद करेंगे तो अन्य जरूरतमंद व्यक्तियों को आगे धन नहीं मिल पाएगा और संभव है कि आगे चलकर आप जैसे नेक व दयालु राजा भी न हों, इसलिए हर व्यक्ति को राजकोष से उतनी ही सहायता लेनी चाहिए जितनी उसे सचमुच आवश्यकता हो।’ युवक की बात सुनकर राजा भोज समेत सभी लोग उसकी मुक्त कंठ से सराहना करने लगे।
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