महाभारत का युद्ध लगभग समाप्त हो चुका था, केवल दुर्योधन बचा हुआ था। वह भी भीम द्वारा सरोवर के किनारे जॉंघ तोड़ दिए जाने के बाद कराहता हुआ आखिरी सॉंसें ले रहा था लेकिन प्रतिशोध की ज्वाला उसे प्राण त्यागने नहीं दे रही थी। ऐसी विषम स्थिति में अश्वत्थामा दुर्योधन के पास उपस्थित था, दुर्योधन बोला- गुरु पुत्र अश्वत्थामा।
मेरी अंतिम इच्छा पूरी करो तो मैं चैन से प्राण त्यागूँ। ‘क्या है आपकी अंतिम इच्छा‘ यह अश्वत्थामा के पूछने पर दुर्योधन बोला कि कल प्रातः सूर्योदय से पूर्व मुझे पॉंचों पांडवों के सिर काटकर ला दो। अश्वत्थामा हाथ में खड्ग लिए चल पड़ा। वीर सैनिक अपनी-अपनी छावनियों में विश्राम कर रहे थे। तत्कालीन युद्धनीति के अनुसार रात्रि में कोई हमला नहीं होता था। सभी निश्चिंत सो रहे थे। पर भगवान श्रीकृष्ण को किसी अनर्थ का आभास हो रहा था। अतः युधिष्ठिर सहित पांडवों को उनके शिविर से हटाकर अन्यत्र किसी सुरक्षित शिविर में ले गए। इधर जब अश्वत्थामा पांडवों के शिविर में आया तो उसने सोते हुए द्रौपदी के पॉंचों पुत्रों के सिर धड़ से अलग कर दिए क्योंकि वह आकृति से पांडवों जैसे दिख रहे थे। प्रतिशोध की धधकती आग ने अश्वत्थामा को अंधा बना दिया था और कटे सिर लेकर सीधे दुर्योधन के पास पहुँच गया। दुर्योधन ने जब कटे सिर देखे तो बहुत खुश हुआ। थोड़ी ही देर में दिन निकल आया था। दुर्योधन ने देखा तो अवाक् रह गया और बोला- मित्र अश्वत्थामा! तुमने यह क्या किया जरा गौर से तो देखो यह तो द्रौपदी के पॉंचों पुत्रों के सिर हैं। पांडव तो जीवित बच गए और ये बेचारे मारे गए। दुर्योधन का हृदय शोक सागर में डूब गया। अश्वत्थामा कुछ समझाते उससे पहले ही दुर्योधन ने प्राण त्याग दिए। वस्तुतः प्रतिशोध की ज्वाला में व्यक्ति इतना बेसुध हो जाता है कि वह उसके अंत का कारण बन जाता है।
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