Saturday, October 26, 2019

ईमानदारी का इनाम


एक भिखारी को बाज़ार में चमड़े का एक बटुआ पड़ा मिला। उसने बटुए को खोलकर देखा। बटुए में सोने की सौ अशर्फियां थीं। तभी भिखारी ने एक सौदागर को चिल्लाते हुए सुना, ‘मेरा चमड़े का बटुआ खो गया है! जो कोई उसे खोजकर मुझे सौंप देगा, मैं उसे इनाम दूंगा!’ भिखारी बहुत ईमानदार आदमी था। उसने बटुआ सौदागर को सौंपकर कहा, ‘ये रहा आपका बटुआ! क्या आप इनाम देंगे?’ ‘इनाम!’  सौदागर ने अपने सिक्के गिनते हुए हिकारत से कहा, ‘इस बटुए में तो दो सौ अशर्फियां थीं! तुमने आधी रकम चुरा ली और अब इनाम मांगते हो! दफा हो जाओ वर्ना मैं सिपाहियों को बुला लूंगा!’इतनी ईमानदारी दिखाने के बाद भी व्यर्थ का दोषारोपण भिखारी से सहन नहीं हुआ। वह बोला, ‘मैंने कुछ नहीं चुराया है! मैं अदालत जाने के लिए तैयार हूं!’ अदालत में काजी ने इत्मीनान से दोनों की बात सुनी और कहा, ‘मुझे तुम दोनों पर यकीन है। मैं इन्साफ करूंगा। सौदागर, तुम कहते हो कि तुम्हारे बटुए में 200 अशर्फियां थीं, लेकिन भिखारी को मिले बटुए में सिर्फ सौ अशर्फियां ही हैं। इसका मतलब यह है कि यह बटुआ तुम्हारा नहीं है। चूंकि भिखारी को मिले बटुए का कोई दावेदार नहीं है इसलिए मैं आधी रकम शहर के खजाने में जमा करने और बाकी भिखारी को इनाम में देने का हुक्म देता हूं।’ बेईमान सौदागर हाथ मलता रह गया। अब वह चाहकर भी अपने बटुए को अपना नहीं कह सकता था क्योंकि ऐसा करने पर उसे कड़ी सजा हो जाती। इन्साफ-पसंद काजी की वज़ह से भिखारी को अपनी ईमानदारी का अच्छा इनाम मिल गया। 

Thursday, October 24, 2019

मन का राजा


राजा भोज वन में शिकार करने गए लेकिन घूमते हुए अपने सैनिकों से बिछुड़ गए और अकेले पड़ गए। वह एक वृक्ष
के नीचे बैठकर सुस्ताने लगे। तभी उनके  सामने से एक लकड़हारा सिर पर बोझा उठाए गुजरा। वह अपनी धुन में मस्त था। उसने राजा भोज को देखा पर प्रणाम करना तो दूर, तुरंत मुंह फेरकर जाने लगा।

भोज को उसके व्यवहार पर आश्‍चर्य हुआ। उन्होंने लकड़हारे को रोककर पूछा, ’तुम कौन हो?’ लकड़हारे ने कहा, ’मैं अपने मन का राजा हूं।’ भोज ने पूछा, ’अगर तुम राजा हो तो तुम्हारी आमदनी भी बहुत होगी। कितना कमाते हो?’ लकड़हारा बोला, ’मैं छह स्वर्ण मुद्राएं रोज कमाता हूं और आनंद से रहता हूं।’ भोज ने पूछा, ’तुम इन मुद्राओं को खर्च कैसे करते हो?’ लकड़हारे ने उत्तर दिया, ’मैं प्रतिदिन एक मुद्रा अपने ऋणदाता को देता हूं। वह हैं मेरे माता पिता। उन्होंने मुझे पाल पोस कर बड़ा किया, मेरे लिए हर कष्ट सहा। दूसरी मुद्रा मैं अपने ग्राहक असामी को देता हूं ,वह हैं मेरे बालक। मैं उन्हें यह ऋण इसलिए देता हूं ताकि मेरे बूढ़े हो जाने पर वह मुझे इसे लौटाएं।

तीसरी मुद्रा मैं अपने मंत्री को देता हूं। भला पत्नी से अच्छा मंत्री कौन हो सकता है, जो राजा को उचित सलाह देता है ,सुख दुख का साथी होता है। चौथी मुद्रा मैं खजाने में देता हूं। पांचवीं मुद्रा का उपयोग स्वयं के खाने पीने पर खर्च करता हूं क्योंकि मैं अथक परिश्रम करता हूं। छठी मुद्रा मैं अतिथि सत्कार के लिए सुरक्षित रखता हूं क्योंकि अतिथि कभी भी किसी भी समय आ सकता है। उसका सत्कार करना हमारा परम धर्म है।’ राजा भोज सोचने लगे, ’मेरे पास तो लाखों मुद्राएं हैं पर जीवन के आनंद से वंचित हूं।’ लकड़हारा जाने लगा तो बोला, ’राजन मैं पहचान गया था कि तुम राजा भोज हो पर मुझे तुमसे क्या सरोकार।’ भोज दंग रह गए। 

Wednesday, October 23, 2019

कर्मों का फल

एक बार राजा बिम्बिसार ने भगवान महावीर से कहा, ’भगवन, मेरे कर्मों का अवलोकन करके बताएं कि मेरा भविष्य क्या है?’ भगवान महावीर ने उनके कर्मों का अवलोकन करके बताया, ’राजन, आप के पास असीमित संपत्ति है, सत्ता है, राजपाट है, ताकत है लेकिन अपने कर्मों के कारण मृत्यु के बाद आप को नरक में जाना पड़ेगा।’ यह सुन कर राजा परेशान हो गए। उन्होंने कहा, ’भगवन, मैं तो सभी कल्याणकारी कार्य करता रहता हूं। धर्म, कर्म में पीछे नहीं रहता। फिर भी मुझे नरक में जाना पड़ेगा। क्या इसका कोई उपाय है जिससे मुझे नरक में न जाना पड़े? उसके लिए मैं राज्य का खजाना भी लुटा सकता हूं।’ भगवान महावीर समझ गए कि राजा के मन में अभी भी अहंकार भरा हुआ है। उन्होंने कहा, ’एक उपाय है। यदि आप कर सको तो नरक से बच सकते हो।’ राजा ने कहा, ’मैं सब कुछ करने को तैयार हूं।’ भगवान महावीर ने कहा, ’आप अपने राज्य के पुण्य नामक श्रावक के पास जाओ और उससे किसी तरह सामयिक फल प्राप्त कर लो। सामयिक फल ही आप को नरक से बचा सकता है।’ राजा श्रावक के पास गए और बोले, ’महात्मन, मुझे सामयिक फल चाहिए। उसकी चाहे जितनी कीमत देनी पड़े मैं देने को तैयार हूं।’ श्रावक ने कहा, ’सामयिक समता को कहते हैं। धन, संपत्ति के अहंकार से ग्रसित व्यक्ति को समता कैसे मिल सकती है। आप को सामयिक फल नहीं मिल सकता।’ राजा भगवान महावीर के पास लौट आए और बोले, ’प्रभु सामयिक फल तो मुझे नहीं मिला लेकिन श्रावक ने बता दिया कि सामयिक फल कैसे मिल सकता है। नरक में जाने का सबसे बड़ा कारण राजपाट और धन दौलत है। इसके रहते मेरे मन से अहंकार जाएगा नहीं और जब तक अहंकार का वास मन में रहेगा, मुझे सामयिक फल मिल नहीं सकता।’ उन्होंने भगवान महावीर से उसी समय दीक्षा ली और राजपाट छोड़ कर संन्यास धारण कर लिया। 

Tuesday, October 22, 2019

लोहे का टोप

नादिरशाह करनाल के मैदान में मुहम्मदशाह की सेना को परास्त करते हुए दिल्ली पहुँचे। वहॉं दोनों बादशाह एक ही सिंहासन पर बैठे। मुहम्मदशाह की हालत हारे हुए बादशाह की तरह थी, उसका सिर झुका हुआ था और भीतर मन कॉंप रहा था कि नादिरशाह अब पता नहीं क्या बर्ताव करने वाला है। जीत कर दिल्ली आने से पहले उसके किस्से दरबार में पहुँच चुके थे, जिनमें नादिरशाह की सनकें और अजीबो-गरीब करतूतें शामिल थीं। दरबार में दोनों बादशाह बैठे ही थे कि नादिरशाह ने मुहम्मदशाह से पीने के लिए पानी मॉंगा। उसकी इच्छा जताते ही वहॉं नगाड़ा बजने लगा, जैसे किसी उत्सव की शुरुआत होने जा रही है। दस-बारह सेवक उपस्थित हो गए। किसी के हाथ में रुमाल था तो किसी के हाथ में खासदान। दो-तीन सेवक चांदी के बड़े थाल को लेकर आगे बढ़े। उसमें मोती-माणिक जड़े हुए कटोरे में जल भरा रखा था। ऊपर से दो सेवक कपड़े से उस परात को ढंके हुए बराबर चल रहे थे। नादिर की समझ में यह नाटक न आया। वह घबरा गया। मॉंगा पानी था और यह क्या तमाशा होने जा रहा है? उसने पूछा यह सब क्या हो रहा है? मुहम्मदशाह ने उत्तर दिया, आपके लिए पानी लाया जा रहा है। नादिर ने ऐसा पानी पीने से इंकार कर दिया। उसने तुरंत अपने भिश्ती को आवाज लगाई। भिश्ती हाजिर हुआ, नादिर ने अपना लोहे का टोप उतारकर भिश्ती से पानी भरकर लाने के लिए कहा। भिश्ती जब पानी ले आया तो टोप से ही उसने पानी पिया और फिर गंभीर स्वर में कहा, ‘यदि हम भी तुम्हारी तरह पानी पीते तो ईरान से भारत न आ पाते। वीरता, विलासिता और वैभव से नहीं कठिन परिस्थितियों के अध्ययन से ही जन्मती और बढ़ती है।

Monday, October 21, 2019

महावत की नादानी


गुरुनानक प्रतिदिन सायंकाल को भ्रमण किया करते थे। मार्ग में जो भी मिलता, उसके हालचाल पूछना और उसकी यदि कोई समस्या हो तो उसका समाधान सुझाना उनकी दिनचर्या का अहम हिस्सा था। एक दिन वे यमुना किनारे टहल रहे थे, तभी उन्हें किसी व्यक्ति के जोर-जोर से रोने की आवाज आई। उन्होंने निकट जाकर देखा तो पाया कि एक हाथी बेसुध पड़ा था और उसका महावत रोते हुए ईश्‍वर से हाथी को पुन: जीवित करने की प्रार्थना कर रहा था। उन्होंने महावत से रोने का कारण पूछा तो वह बोला- मेरा हाथी अचानक चलते-चलते गिर पड़ा। मैंने इसे कितना ही पुकारा और हिलाया-डुलाया, किंतु यह उठता ही नहीं है। तब गुरुनानक बोले- तुम हाथी के सिर पर पानी डालो, यह ठीक हो जाएगा। महावत ने ऐसा ही किया। कुछ ही देर बाद हाथी को होश आ गया और वह उठ बैठा। महावत ने तत्काल गुरुनानक के चरण पकड़ते हुए कहा- महाराज आपकी कृपा से मेरा हाथी जिंदा हो गया। गुरुनानक बोले- हाथी मरा नहीं था। वह दिमाग में गर्मी चढ़ जाने से मूर्च्छित हो गया था। तुमने उसके सिर पर पानी डाला तो उसे होश आ गया क्योंकि पानी की ठंडक से दिमाग की गर्मी दूर हो गई। इसमें मेरी कोई कृपा या चमत्कार नहीं है। हर व्यक्ति को पहले समस्या का कारण जानना चाहिए, फिर उसके निदान का प्रयास करना चाहिए। कारण जाने बिना समस्या का निदान नहीं हो सकता। अत: खूब सोच-विचारकर कार्य करें और किसी चमत्कार के चक्कर में नहीं पड़ें।

Sunday, October 20, 2019

प्रतिशोध


महाभारत का युद्ध लगभग समाप्त हो चुका था, केवल दुर्योधन बचा हुआ था। वह भी भीम द्वारा सरोवर के किनारे जॉंघ तोड़ दिए जाने के बाद कराहता हुआ आखिरी सॉंसें ले रहा था लेकिन प्रतिशोध की ज्वाला उसे प्राण त्यागने नहीं दे रही थी। ऐसी विषम स्थिति में अश्‍वत्थामा दुर्योधन के पास उपस्थित था, दुर्योधन बोला- गुरु पुत्र अश्‍वत्थामा। 

मेरी अंतिम इच्छा पूरी करो तो मैं चैन से प्राण त्यागूँ। ‘क्या है आपकी अंतिम इच्छा‘ यह अश्‍वत्थामा के पूछने पर दुर्योधन बोला कि कल प्रातः सूर्योदय से पूर्व मुझे पॉंचों पांडवों के सिर काटकर ला दो। अश्‍वत्थामा हाथ में खड्ग लिए चल पड़ा। वीर सैनिक अपनी-अपनी छावनियों में विश्राम कर रहे थे। तत्कालीन युद्धनीति के अनुसार रात्रि में कोई हमला नहीं होता था। सभी निश्‍चिंत सो रहे थे। पर भगवान श्रीकृष्ण को किसी अनर्थ का आभास हो रहा था। अतः युधिष्ठिर सहित पांडवों को उनके शिविर से हटाकर अन्यत्र किसी सुरक्षित शिविर में ले गए। इधर जब अश्‍वत्थामा पांडवों के शिविर में आया तो उसने सोते हुए द्रौपदी के पॉंचों पुत्रों के सिर धड़ से अलग कर दिए क्योंकि वह आकृति से पांडवों जैसे दिख रहे थे। प्रतिशोध की धधकती आग ने अश्‍वत्थामा को अंधा बना दिया था और कटे सिर लेकर सीधे दुर्योधन के पास पहुँच गया। दुर्योधन ने जब कटे सिर देखे तो बहुत खुश हुआ। थोड़ी ही देर में दिन निकल आया था। दुर्योधन ने देखा तो अवाक् रह गया और बोला- मित्र अश्‍वत्थामा! तुमने यह क्या किया जरा गौर से तो देखो यह तो द्रौपदी के पॉंचों पुत्रों के सिर हैं। पांडव तो जीवित बच गए और ये बेचारे मारे गए। दुर्योधन का हृदय शोक सागर में डूब गया। अश्‍वत्थामा कुछ समझाते उससे पहले ही दुर्योधन ने प्राण त्याग दिए। वस्तुतः प्रतिशोध की ज्वाला में व्यक्ति इतना बेसुध हो जाता है कि वह उसके अंत का कारण बन जाता है।

Saturday, October 19, 2019

टल गया विवाद

जॉर्ज बर्नार्ड शॉ अपने समय के सुविख्यात साहित्यकार थे। प्रसिद्धि के शीर्ष पर होने के बावजूद उनमें जरा भी अहंकार नहीं था और उनका रहन-सहन भी अति साधारण था। अपने ऐसे सरल स्वभाव की वजह से वे जनता के बीच काफी लोकप्रिय थे और प्राय: प्रत्येक वर्ग के लोग उनसे मिलने आया करते थे।

ऐसे ही एक दिन एक व्यक्ति जॉर्ज को अपने यहां भोज में आमंत्रित करने के लिए आया॥ जॉर्ज ने उसका आमंत्रण तो स्वीकार कर लिया, साथ ही उससे कहा कि वे शाकाहारी हैं और यदि वह उनके लिए शाकाहार की व्यवस्था कर सके, तो ही वे उसके घर भोजन पर आ सकते हैं। उस शख्स ने उनकी बात स्वीकार कर ली। अगले दिन जॉर्ज उसके घर भोजन करने गए। जॉर्ज शाकाहारी भोजन की मेज की ओर गए और मेज पर रखे सलाद को स्वाद लेकर खाने लगे। तभी मांसाहार का स्वाद ले रहा व्यक्ति उनकी ओर देखकर हंसने लगा। शॉ ने संकेत से हंसने का कारण पूछा तो वह बोल- जनाब, मुर्गा खाइए मुर्गा। ये घासफूस क्यों चर रहे हैं? शॉ ने भी मुस्कराते हुए तत्काल उत्तर दिया - भाई साहब, यह मेरा पेट है, कोई कब्रिस्तान नहीं, जो मैं इसमें मरी हुई चीजें दफन करता फिरूं। यह सुनकर वह व्यक्ति शर्म से पानी-पानी हो गया। जॉर्ज बर्नार्ड शॉ के जीवन का यह प्रसंग संकेत करता है कि कई बार गलत बातों का प्रतिकार विवाद से करने के स्थान पर हाजिरजवाबी से भी किया जा सकता है। इससे अनावश्यक तनाव भी पैदा नहीं होता और संबंधित शख्स के लिए कहने या करने को कुछ शेष भी नहीं रह जाता।

Friday, October 18, 2019

त्याग से संकट कटे


जब मेघनाद के शक्ति बाण से लक्ष्मण मूर्छित हो गए, तो विभीषण की राय पर हनुमान सुषेन वैद्य को ले आए। वैद्य जी ने हिमालय से संजीवनी बूटी लाने की सलाह दी। उन्होंने शर्त रखी कि अगर सूर्योदय से पहले लक्ष्मण को संजीवनी नहीं पिलाई गई तो वह जिंदा नहीं बचेंगे। यह काम हनुमान को सौंपा गया। जब हनुमान पूरे धवल गिरि को उठाए अयोध्या से गुजर रहे थे, तो उन पर भरत की दृष्टि पड़ गई। भरत ने सोचा कि राम की अनुपस्थिति में कोई राक्षस अनिष्ट करने की मंशा से राज्य के ऊपर मंडरा रहा है। उन्होंने धनुष-बाण उठाया और हनुमान पर निशाना साध दिया। बाण लगते ही हनुमान धरती पर आ गिरे और कुछ क्षणों के लिए अचेत हो गए। हनुमान को देखकर भरत को बहुत ग्लानि हुई। उनका कुशल क्षेम पूछने के बाद भरत ने कहा,’ आपको सूर्योदय से पहले लंका पहुंचना है और दूरी बहुत ज्यादा है। मेरे बाण पर बैठ जाइए, इससे आप तुरंत ही श्रीराम के पास पहुंच जाएंगे।’ हनुमान ने कहा, ’राम का नाम लेने में जितनी देर लगती है, उतने ही समय में मैं लंका पहुंच जाऊंगा।’ 

इस बीच सभी रानियां भी आ गईं। दुखद समाचार सुनने के बाद कौशल्या ने राम को संदेश भेजा कि अगर लक्ष्मण जीवित न बचा तो तुम कभी अयोध्या मत आना। इसके बाद कैकेयी ने कहा, ’राम! वन में भटकते-भटकते बहुत दिन बीत गए हैं। अब तुम अयोध्या लौट आओ, अब मैं भरत को तुम्हारी जगह युद्ध के लिए भेज रही हूं।’ सुमित्रा से रहा नहीं गया। वह बोलीं, ’लक्ष्मण के प्राण नहीं बचे तो कोई बात नहीं। तुम चिंता मत करना। उसका एक भाई शत्रुघ्न है, जल्दी से स्थिति के बारे में बताओ ताकि मैं तुम्हारी सेवा में उसे भेज सकूं।’ उनकी बातें सुनकर हनुमान ने सोचा कि जहां एक-दूसरे के लिए त्याग की ऐसी भावना हो, वहां सभी संकट स्वत: कट जाएंगे। 

Thursday, October 17, 2019

स्वभाव की पहचान

एक गांव में दो स्त्रियां रहती थीं जो दूध बेचकर जीवन निर्वाह करती थीं। दोनों पड़ोसिनें थीं। एक के पास पांच गायें थीं और दूसरी के पास केवल एक। एक बार पांच गायों वाली स्त्री एक गाय वाली पड़ोसिन के पास गई और उससे कुछ रुपये उधार मांगे। एक गाय वाली स्त्री ने रुपये दे दिए। एक वर्ष बीत गया। उधार देने वाली स्त्री अपनी पड़ोसिन के पास पहुंची और उससे अपनी रकम लौटाने को कहा। किंतु कर्ज लेने वाली स्त्री ने कहा कि उसने तो उधार लिया ही नहीं है। मामला अदालत में पहुंचा। कर्ज लेने वाली स्त्री ने न्यायाधीश से कहा, ’महोदय, मेरे पास पांच गायें हैं जो मेरे जीवन निर्वाह के लिए पर्याप्त हैं। इस स्त्री के पास केवल एक गाय है। मुझे इससे कर्ज लेने की क्या आवश्यकता?’ न्यायाधीश ने उन दोनों को दूसरे दिन न्यायालय में बुलाया। न्यायालय के बाहर एक ओर पांच लोटों में तथा दूसरी ओर एक लोटे में पानी भरवाकर रखवा दिया। उन स्त्रियों को पैर धोकर अंदर आने के लिए कहा गया। पांच गायों वाली स्त्री ने एक के बाद एक पांचों लोटों का पानी अपने पैरों पर डालकर सारा पानी फैलाकर प्रवेश किया, जबकि एक गाय वाली स्त्री ने एक लोटा में से पानी लेकर बड़ी सावधानी पूर्वक अपने पैर साफ किये और थोड़ा पानी बचा भी लिया। उन दोनों स्त्रियों के बर्ताव को न्यायाधीश बड़े ध्यान से देखते रहे और उसके आधार पर उन्होंने यह जान लिया कि वाकई पांच गायों वाली स्त्री ने कर्ज लिया है। वे इस निर्णय पर पहुंचे कि पांच लोटा पानी फटा-फट फैला देने वाली बहुत खर्चीले स्वभाव की है, इसलिए उसे कर्ज लेने की आवश्यकता पड़ी जबकि एक लोटा में से थोड़ा पानी लेकर अपना काम चला, थोड़ा पानी बचा लेने वाली स्त्री कम खर्चीली मितव्ययी स्वभाव वाली है इसलिए वह उधार दे सकती है। उनके स्वभाव की पहचान कर न्यायाधीश ने फैसला सुना दिया। 

Wednesday, October 16, 2019

ईमानदारी की जांच


राजा भोज अपने दरबार में बैठे थे, तभी द्वारपाल ने आकर सूचना दी, ’महाराज, एक दुबला-पतला, अत्यंत निर्धन युवक आपसे मिलना चाहता है। हमने उससे पूछने की बहुत कोशिश की कि आखिर वह आपसे क्यों मिलना चाहता है, पर वह कुछ नहीं बता रहा। वह बस आपसे मिलने की रट लगाए हुए है।’

राजा भोज ने उस निर्धन युवक को बुलाने की अनुमति दे दी। वह युवक अंदर आया और राजा को नमस्कार कर बोला, ’महाराज, मेरी मां की तबीयत बहुत खराब है, इसलिए मैं मदद के लिए आपके पास चला आया।’ भोज ने यह सुनकर कहा, ’तुम्हारी मां का इलाज होना ही चाहिए।’ उन्होंने अपने खजांची से उस निर्धन युवक को एक हजार स्वर्ण मुद्राएं देने को कहा।

युवक बोला, ’क्षमा करिए, मां की चिकित्सा के लिए पचास स्वर्ण मुद्राएं ही पर्याप्त हैं। मां के स्वस्थ होने पर मैं कोई-न-कोई काम अवश्य ढूंढ लूंगा।’ युवक की यह बात सुनकर राजा भोज समेत वहां उपस्थित सभी लोग आश्‍चर्यचकित रह गए। भोज बोले, ’युवक, मैं तुम्हें स्वेच्छा से एक हजार स्वर्ण मुद्राएं दे रहा हूं किंतु तुम उन्हें लेने से इन्कार क्यों कर रहे हो?’ युवक ने उत्तर दिया, ’महाराज, मैं लेने से इन्कार नहीं कर रहा किंतु इस समय मुझे वास्तव में मात्र पचास स्वर्ण मुद्राओं की आवश्यकता है। फिर मैं अधिक क्यों लूं? राजकोष का धन भी तो हमारा ही है और यदि हम उसे व्यर्थ बर्बाद करेंगे तो अन्य जरूरतमंद व्यक्तियों को आगे धन नहीं मिल पाएगा और संभव है कि आगे चलकर आप जैसे नेक व दयालु राजा भी न हों, इसलिए हर व्यक्ति को राजकोष से उतनी ही सहायता लेनी चाहिए जितनी उसे सचमुच आवश्यकता हो।’ युवक की बात सुनकर राजा भोज समेत सभी लोग उसकी मुक्त कंठ से सराहना करने लगे।