एक दिन एक कुत्ता श्रीराम (Shriram) के दरबार में आया और उसने प्रभु से शिकायत की , ‘राजन, कितने दु:ख की बात है कि जिस राज्य की कीर्ति चहुंओर फैली है वहीं लोग हिंसा और अन्याय का सहारा लेते हैं। मैं आपके महल के पास ही एक गली में लेटा हुआ था। एक साधु आया और उसने मुझे पत्थर मारकर घायल कर दिया। देखिए मेरे सिर पर पत्थर से बने घाव से अभी भी रक्त बह रहा है। वह साधु अभी भी गली में ही होगा। कृपया मेरे साथ न्याय कीजिए और अन्यायी को उसके दुष्कर्म का दंड दीजिए।’
श्रीराम के आदेश पर साधु को दरबार में लिवा लाया गया। साधू ने अपना बचाव करते हुए कहा, ‘यह कुत्ता गली में पूरा मार्ग रोककर लेटा हुआ था। मैंने इसे उठाने के लिए आवाजें दीं और ताली बजाई लेकिन यह नहीं उठा। मुझे गली के पार जाना था इसलिए मैंने इसे एक पत्थर मारकर भगा दिया।’
श्रीराम ने साधु से कहा, ‘एक साधु होने के नाते तो तुम्हें किंचित भी हिंसा नहीं करनी चाहिए थी। तुमने गंभीर अपराध किया है और इसके लिए दंड के भागी हो।‘ श्रीराम ने साधु को उसके अपराध की सजा देने के विषय पर दरबारियों से चर्चा की। दरबारियों ने एकमत होकर निर्णय लिया कि इस बुद्धिमान कुत्ते ने यह वाद प्रस्तुत किया है तो सजा के विषय पर भी इसका मत ले लिया जाए।
कुत्ते ने कहा, ‘राजन, इस नगरी से पचास योजन दूर एक अत्यंत समृद्ध और संपन्न मठ है जिसके महंत की दो वर्ष पूर्व मृत्यु हो चुकी है। कृपया इस साधु को उस मठ का महंत नियुक्त कर दें।’
श्रीराम और सभी दरबारियों को ऐसा विचित्र दंड सुनकर बड़ी हैरानी हुई। उन्होंने कुत्ते से ऐसा दंड सुनाने का कारण पूछा। कुत्ते ने अपनी बात को स्पष्ट करते हुए कहा, ‘मैं ही दो वर्ष पूर्व उस मठ का महंत था। ऐसा कोई सुख, प्रमाद, या दुर्गुण नहीं है जो मैंने वहां रहते हुए नहीं भोगा हो। इसी कारण इस जन्म में मैं कुत्ता बनकर पैदा हुआ हूं। अब शायद आप मेरे दंड का भेद जान गए होंगे।’
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