श्रीरामकृष्ण का कथन है कि वेदों का विलय गायत्री में और गायत्री का विलय प्रणव (ओम्) में होता है और प्रणव का समाधि या अतिचेतनावस्था में अपने आप विलय हो जाता है।
गायत्री एवं ओम् के अंतर्संबंध पर रामकृष्ण संघ के संन्यासी स्वामी घनानंद के एक आलेख का अंश
पुरातन काल में हिन्दू सूर्य के प्रकाश में, मानव के नेत्रों की ज्योति में तथा चेतना के केन्द्र माने जाने वाले हृदय में, अभिव्यक्त ब्रह्म की उपासना किया करते थे। गायत्री उपासना सूर्य के प्रकाश में अभिव्यक्त ब्रह्म की उपासना है। उन्होंने सूर्य को प्रकाश और जीवन के चरम उत्स के रूप में स्वीकार किया, क्योंकि सूर्य के बिना पृथ्वी पर समस्त जीवन का लोप हो जाएगा और सारा संसार अंधकार में डूब जाएगा।
गायत्री मंत्र की दीक्षा प्राप्त हिन्दू युवक को सूर्योदय, सूर्यास्त और मध्याह्न के समय सूर्य के उज्ज्वल प्रकाश पर मन को एकाग्र करने को कहा जाता है। उसके बाद उसे कहा जाता है कि वह सूर्य में प्रकाश के स्रोत अथवा जीवन का चिंतन करे। इससे वह स्वयं के भीतर विद्यमान प्राण अथवा प्रज्ञालोक के स्रोत तक पहुंचता है, जिसके बिना वह सूर्य के आलोक या उस प्रकाश की प्राण सत्ता का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता।
अंतिम अवस्था में उसे अपने भीतर के प्रकाश (के जीवन) और सूर्य में विद्यमान प्रकाश (के जीवन) के एकत्व पर ध्यान करने को कहा जाता है। अर्थात् स्वयं में विद्यमान एकमात्र सत्ता व समग्र ब्रह्मांड की एकमात्र सत्ता के एकत्व पर ध्यान करने को कहा जाता है। अंतत: वह इसका साक्षात्कार करता है। ज्यों ही वह अपनी आत्मा का साक्षात्कार करता है, त्योंही ब्रह्म या परमात्मा के साथ उसके एकत्व की अनुभूति अपने आप हो जाती है। गायत्री मंत्र एक अत्यंत उदात्त वैदिक प्रार्थना है। इसका अर्थ है-हम तीनों लोगों के स्रष्टा परमात्मा के ज्योतिर्मय स्वरूप का ध्यान करें। वे हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में लगाएं। गायत्री मंत्र की आवृत्ति के पहले ’भू: भुव: स्व:’ इन तीन व्याहृतियों का सदा उच्चारण किया जाना चाहिए और इनके पूर्व ओम् का उच्चारण होना चाहिए। भू: का अर्थ है पृथ्वी। भुव: का अर्थ है अंतरिक्ष लोक और स्व: का अर्थ है स्वर्गलोक। इनकी रचना ईश्वर कहलाने वाली दैवी शक्ति अथवा सगुण ब्रह्म ने की है। इन ईश्वर निर्मित तीन लोकों के चिंतन से जगत स्रष्टा ईश्वर का स्मरण हो जाता है।
कहते हैं कि गायत्री का लय प्रणव (ओम) में होता है। ओम् शब्द क्या है? ओम्- अ, उ और म, इन तीन अक्षरों से मिलकर बना है और प्रत्येक चेतना की एक अवस्था-विशेष का प्रतीक है। लेकिन अकेला एकाक्षर ओम् चतुर्थ या तुरीय या ब्रह्म का प्रतीक है। अत: पूर्ण ओम् ब्रह्म का सर्वश्रेष्ठ प्रतीक है। जाग्रत अवस्था का मानव, स्वप्नावस्था का मानव तथा सुषुप्तावस्था का मानव, ये तीनों एक ही आत्मा की तीन अभिव्यक्तियां हैं। इस प्रकार आंतरिक स्तर पर चेतना की तीनों अवस्थाओं के बीच एक एकत्व का बोध विद्यमान रहता है। यह एकत्व-बोध आत्मा नहीं है, लेकिन वह उसकी मानव द्वारा तुरीय नामक विशुद्ध चैतन्य के रूप में अनुभूति की संभावना का संकेत प्रदान करता है। वस्तुत: तुरीय कोई अवस्था नहीं है, क्योंकि वह अनंत है, लेकिन उसे बोलचाल में चतुर्थ या अतींद्रिय अवस्था कहा जाता है। यही बाह्य जगत के पीछे विद्यमान चैतन्य सत्ता है। यही ब्रह्म है, जो उपनिषदों की एकमात्र विषय वस्तु है तथा वेदांत के अनुसार जीवन का एकमात्र लक्ष्य है।
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