Monday, May 4, 2015

सत्य की समझ


काशी के एक संत अपने आश्रम में शिष्य पारंगत के साथ रहते थे। उसने आश्रम में बीस साल रह कर ढ़ेर सारा ज्ञान अर्जित किया। एक दिन संत ने कहा, ’वत्स पारंगत, तुमने बहुत समय तक मेरी सेवा की है। मैंने फैसला किया है कि तुम कुछ समय के लिए देशाटन पर जाओ। देश के तीर्थ स्थलों का भ्रमण करो और देश की अधिकाधिक भाषाएं सीख कर वापस आओ।’ पारंगत देशाटन पर निकल पड़ा। उसने विभिन्न प्रदेशों का भ्रमण किया। देश की सभी भाषाएं भी सीखी और कुछ धन भी एकत्रित करके एक दिन आश्रम लौट आया। उसने सोचा कि गुरु जी को जब पता चलेगा कि उनका शिष्य आश्रम के लिए धन में कमा कर लाया है तो बहुत खुश होंगे। उसे  गुरु जी रुग्णावस्था में तख्त पर लेटे मिले। गुरु को इस हालत में देश कर उसे एक बार दुख तो हुआ लेकिन उत्साह में उसने गुरु को प्रणाम कर कहा, ’गुरुवर, मैं देश की सभी भाषाएं सीख ली है और आश्रम में लिए धन कमा का भी लाया हूं।’संत शांत भाव से उसकी बातें सुनते रहे फिर बोले, ’वत्स, क्या तुम्हें कोई ऐसी मां मिली, जो अपने शिशु को भूखा रोता देख कर अपना दूध रहित स्तन उसे पिला रही हो?’ पारंगत ने कहा, ’ऐसे लोग तो हर जगह मिले।’ गुरु ने कहा, ’क्या तुम्हारे मन में उनके लिए किसी तरह की सहानुभूति जगी थी? क्या तुमने प्रेम के एकाध शब्द उनसे कहे?’ उसने कहा, ’गुरुवर, मैं इस झमेले में पड़ता तो आप के आदेश का पालन कैसे करता?’ संत ने कहा, ’वत्स पारंगत, तुमने बहुत सारी भाषाएं तो सीख ली लेकिन उस अमूल्य भाषा को नहीं सीख पाए जिसके लिए मैंने तुम्हें भेजा था। तुम अब भी प्रेम, करुणा और सहानुभूति की भाषा नहीं जानते। तुम अपने गुरु को रुग्णावस्था में देख कर भी कुशल क्षेम जाने बिना अपनी कहानी सुनाने लगे।’ पारंगत गुरु का भाव समझ गया और अज्ञानता के लिए क्षमा मांग कर उलटे पांव लौट कर अज्ञात दिशा की तरफ चला गया। 

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