Tuesday, May 5, 2015

परोपकार की भावना


एक किसान अनाज बेच कर बैलगाड़ी से गांव लौट रहा था। एक जगह रास्ते के बीचों-बीच भारी-भरकम पत्थर पड़ा था। उसे हटाए बगैर कोई बैलगाड़ी निकल नहीं सकती थी और पत्थर इतना भारी था कि एक आदमी उसे हटाया नहीं सकता था। किसान चिंता में पड़ गया। तभी उसकी नजर टीले पर लेटे एक आदमी पर पड़ी। किसान ने उससे सहायता मांगी। दोनों ने मिल कर पत्थर हटाया। किसान गुस्से में उस अनजान आदमी को गालियां देने लगा, जिसने पत्थर रखा था। साथ ही उसने मदद करने वाले की खूब तारीफ भी की, उसे धन्यवाद दिया। किसान ने उस आदमी से पूछा, ’कहां जाना है?’ उसने कहा कि उसे पट्टी जाना है। किसान ने कहा, ’बैठ जाओ, मुझे और आगे जाना है। रास्ते में उतर जाना।’ बैलगाड़ी पट्टी पहुंची तो वह आदमी उतर कर बोला, ’जिस आदमी को आप गाली दे रहे थे और जिसकी तारीफ कर रहे थे, दोनों मैं ही हूं। बीच रास्ते में पत्थर रखने वाला कोई और नहीं, मैं ही था। असल में मैं बहुत थक गया था। सुस्ताने के लिए जगह देख रहा था कि पहाड़ी पर यह पत्थर दिखाई दिया। सोचा, पत्थर पर बैठ कर थोड़ा सुस्ता लूं। 

पत्थर पलटने की कोशिश कर ही रहा था कि वह लुढ़कता हुआ बीच सड़क पर जाकर रुका। मैं परेशान हो गया। सोचने लगा कि एक आदमी से पत्थर हटेगा नहीं और पत्थर हटाए बगैर कोई बैलगाड़ी निकलेगी नहीं। यहां कोई आदमी भी नहीं है। इसलिए मैंने सोचा कि मैं चला जाऊंगा तो बैलगाड़ी वाले को परेशानी होगी। सो, मैं यहां टीले पर लेट गया और आने वाले का इंतजार कर रहा था। कई घंटे बाद आप आए। आप की मदद करके मेरा मन हल्का हो गया है। अब मैं आराम से घर जा सकता हूं। गलती किसी से भी हो सकती है लेकिन जरूरी है कि हम उसे स्वीकार करें और उससे किसी और का नुकसान न होने दें।’ उसकी बातों से किसान की भी आंखें खुल गईं।

Monday, May 4, 2015

सत्य की समझ


काशी के एक संत अपने आश्रम में शिष्य पारंगत के साथ रहते थे। उसने आश्रम में बीस साल रह कर ढ़ेर सारा ज्ञान अर्जित किया। एक दिन संत ने कहा, ’वत्स पारंगत, तुमने बहुत समय तक मेरी सेवा की है। मैंने फैसला किया है कि तुम कुछ समय के लिए देशाटन पर जाओ। देश के तीर्थ स्थलों का भ्रमण करो और देश की अधिकाधिक भाषाएं सीख कर वापस आओ।’ पारंगत देशाटन पर निकल पड़ा। उसने विभिन्न प्रदेशों का भ्रमण किया। देश की सभी भाषाएं भी सीखी और कुछ धन भी एकत्रित करके एक दिन आश्रम लौट आया। उसने सोचा कि गुरु जी को जब पता चलेगा कि उनका शिष्य आश्रम के लिए धन में कमा कर लाया है तो बहुत खुश होंगे। उसे  गुरु जी रुग्णावस्था में तख्त पर लेटे मिले। गुरु को इस हालत में देश कर उसे एक बार दुख तो हुआ लेकिन उत्साह में उसने गुरु को प्रणाम कर कहा, ’गुरुवर, मैं देश की सभी भाषाएं सीख ली है और आश्रम में लिए धन कमा का भी लाया हूं।’संत शांत भाव से उसकी बातें सुनते रहे फिर बोले, ’वत्स, क्या तुम्हें कोई ऐसी मां मिली, जो अपने शिशु को भूखा रोता देख कर अपना दूध रहित स्तन उसे पिला रही हो?’ पारंगत ने कहा, ’ऐसे लोग तो हर जगह मिले।’ गुरु ने कहा, ’क्या तुम्हारे मन में उनके लिए किसी तरह की सहानुभूति जगी थी? क्या तुमने प्रेम के एकाध शब्द उनसे कहे?’ उसने कहा, ’गुरुवर, मैं इस झमेले में पड़ता तो आप के आदेश का पालन कैसे करता?’ संत ने कहा, ’वत्स पारंगत, तुमने बहुत सारी भाषाएं तो सीख ली लेकिन उस अमूल्य भाषा को नहीं सीख पाए जिसके लिए मैंने तुम्हें भेजा था। तुम अब भी प्रेम, करुणा और सहानुभूति की भाषा नहीं जानते। तुम अपने गुरु को रुग्णावस्था में देख कर भी कुशल क्षेम जाने बिना अपनी कहानी सुनाने लगे।’ पारंगत गुरु का भाव समझ गया और अज्ञानता के लिए क्षमा मांग कर उलटे पांव लौट कर अज्ञात दिशा की तरफ चला गया। 

Saturday, May 2, 2015

संत का स्वभाव


सगाल के एक मशहूर आर्ट कॉलेज में एक अमीर छात्र ने दाखिला लिया। वह रहन-सहन में बेहद लापरवाह था। हॉस्टल में उसका कमरा हमेशा गंदा रहता था। सारी चीजें इधर-उधर बिखरी रहती थीं। उसकी शिकायत प्रिंसिपल तक पहुंची लेकिन कोई हल नहीं निकला। एक दिन वह सोकर उठा तो उसे अपना कमरा साफ-सुथरा मिला। सारी चीजें करीने से रखी हुई थीं। उसे लगा कि यह काम जरूर हॉस्टल के नौकर का होगा। इनाम पाने के लालच में ही उसने ऐसा किया होगा। दो-तीन दिनों में कमरा पहले जैसा हो गया।  चौथे दिन फिर उसके कमरे की सफाई हो गई थी। उस छात्र ने फिर सोचा कि यह काम नौकर का ही होगा। रात को वह चुपके से आता होगा और सफाई करके चला जाता होगा। दूसरे दिन उसने नौकर को बुलाया और कुछ पैसे देते हुए कहा, ’लो अपना इनाम।’ नौकर हैरत में पड़ गया। उसने कहा, ’इनाम किसलिए?’ छात्र बोला, ’इसलिए कि तुम रोज मेरे कमरे की सफाई करते हो।’ इस पर नौकर ने कहा, ’मैं तो कभी आप के कमरे गया भी नहीं साहब। सफाई कैसे करूंगा?’ नौकर इनाम लिए बगैर चला गया।

छात्र असमंजस में पड़ गया। इस रहस्य को जानने के लिए एक रात वह सोने का बहाना कर चुपचाप लेटा रहा। आधी रात को कोई उसके कमरे में आया और बिखरी हुई सारी चीजों को व्यवस्थित करने लगा। उस शख्स को देखते ही छात्र सन्न रह गया। वह उसके प्रिंसिपल थे। छात्र उनके पैरों पर गिर गया और माफी मांगने लगा। प्रिंसिपल ने कहा, ’तुम यहां कलाकार बनने आए थे। कलाकार तो नहीं बन सकते लेकिन मैं चाहता हूं कि तुम कम से कम एक अच्छे इंसान बन कर यहां से जाओ। फूहड़पन में कला का वास नहीं होता। कला के लिए तो निर्मल मन और सौंदर्य दृष्टि चाहिए, जो तुम्हारे अंदर नहीं है।’  वह प्रिंसिपल थे विख्यात कलाकार नंदलाल बसु।