एक तपस्वी ने वृक्ष की छाया में आराम किया और प्रस्थान के समय वृक्ष से वर मांगने का आग्रह किया। वृक्ष ने इच्छा व्यक्त की कि उसके वर्तमान पत्ते कभी उससे अलग न हों। ‘तथास्तु’ कहकर तपस्वी ने उससे विदा ली। बहुत समय बाद संयोगवश तपस्वी पुनः वहां से गुजर रहा था। उदास-निराश वृक्ष ने गुहार लगायी, ‘महात्मन! पूर्वकाल में दिया गया वर वापस ले लीजिए। उस समय मोहवश मैं यह भूल गया था कि परिवर्तन सृष्टि का सतत नियम है। इस नियम की अनदेखी करने के कारण मैं श्रीवृद्धि के लिए तरस रहा हूं। मैं जान गया हूं कि पुराना खोकर ही नया पाया जा सकता है।’
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